श्रीहरिनामचिन्तामणि श्रीगोद्रुमचन्द्राय नमः (१) प्रथमपरिच्छेद श्रीनाममाहात्म्यसूचना गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन । सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ १.१ ॥ लवण जलधि तीरे नीलाचले श्री मन्दिरे दारु ब्रह्म पुरुष प्रधान । जीवे निस्तारिते हरि अर्चा रूपे अवतरि भोग मोक्ष करेन प्रदान ॥ १.२ ॥ सेइ धामे श्री चैतन्य मानवे करिते धन्य सन्न्यासी रूपेते भगवान् । कलिते ये युग धर्म बुझाइते तार मर्म काशी मिश्र घरे अधिष्ठान ॥ १.३ ॥ निज भक्त वृन्द लये निजे कल्प तरु हये कृष्ण प्रेम देन सर्व जने । नाना मते भक्त मुखे भक्त कथ शुनि सुखे जीव शिक्षा देन सुयतने ॥ १.४ ॥ एक दिन भगवान् समुद्रे करिया स्नान श्री सिद्ध बकुले हरि दासे । मिलि आनन्दित मने जिज्ञासिला सयतने किसे जीव तरे अनायासे ॥ १.५ ॥ प्रभुर चरण धरिऽ अनेक विनय करिऽ गलद्अश्रु पुलक शरीर । हरिदास महाशय काङ्दिते काङ्दिते कय प्रभु तव लीला सुगभीर ॥ १.६ ॥ आमि अति अकिञ्चन नाहि मोर विद्या धन तव पद आमार सम्बल । ए हेन अयोग्य जने प्रश्न करिऽ अकारणे बल प्रभु हबे किबा फल ॥ १.७ ॥ तुमि कृष्ण स्वयं प्रभो जीव उद्धारिते विभो नवद्वीप धामे अवतार । कृपा करिऽ राङ्गा पाय राख मोरे गौर राय तबे चित्त प्रफुल्ल आमार ॥ १.८ ॥ तोमार अनन्त नाम तवानन्त गुण ग्राम तव रूप सुखेर सागर । अनन्त तोमार लीला कृपा करिऽ प्रकाशिला ताइ आस्वादये ए पामर ॥ १.९ ॥ चिन्मय भास्कर तुमि किरणेर कण आमि तुमि प्रभु, आमि नित्य दास । चरण पीयूष तव मम सुख सुवैभव तव नामामृते मोर आश ॥ १.१० ॥ ए मत अधम आमि कि बलिते जानि स्वामी तबु आज्ञा करिब पालन । या बलाबे मोर मुखे तोमारे बलिब सुखे दोष गुण ना करि गणन ॥ १.११ ॥ कृष्णतत्त्व एकमात्र इच्छामय कृष्ण सर्वेश्वर । नित्य शक्तियोगे कृष्ण विभु परात्पर ॥ १.१२ ॥ कृष्ण कृष्णशक्ति कृष्णशक्ति कृष्ण हैते ना हय स्वतन्त्र । येइ शक्ति सेइ कृष्ण कहे वेदमन्त्र ॥ १.१३ ॥ कृष्ण विभु, शक्ति ताङ्र वैभव स्वरूप । अनन्त वैभवे कृष्ण हय एक रूप ॥ १.१४ ॥ त्रिविध वैभव शक्तिर प्रकाश येइ सेइ त वैभव । विभुर वैभव मात्र हय अनुभव ॥ १.१५ ॥ वैभव त्रिविध तव गौराङ्ग सुन्दर चिदचित्जीव तिन शास्त्रेर गोचर ॥ १.१६ ॥ चिद्वैभव अनन्त वैकुण्ठ आदि यत कृष्ण धाम । गोविन्द श्रीकृष्ण हरि आदि यत नाम ॥ १.१७ ॥ द्विभुज मुरलीधर आदि यत रूप । भक्तानन्दप्रद आदि गुण अपरूप ॥ १.१८ ॥ व्रज रसलीला नवद्वीपे सङ्कीर्तन । एइ रूप कृष्ण लीला विचित्र गणन ॥ १.१९ ॥ ए समस्त चिद्वैभव अप्राकृत हय । आसियौ ए प्रपञ्चे प्रापञ्चिक नय ॥ १.२० ॥ चिद्व्यापार समुदय विष्णुतत्त्वसार । विष्णुपद बलि वेदे गाय बार बार ॥ १.२१ ॥ कृष्णेर चिद्विभुते विष्णुतत्त्व शुद्धतत्त्व नाहि ताहे जडधर्म मायार विकार । जडातीत विष्णुतत्त्व शुद्धसत्त्वसार ॥ १.२२ ॥ शुद्धसत्त्व रजस्तमोगन्धविरहित । रजस्तमोमिश्र मिश्रसत्त्व सुविदित ॥ १.२३ ॥ गोविन्द वैकुण्ठनाथ कारणोदशायी । गर्भोदशायी आर क्षीरसिन्धुशायी ॥ १.२४ ॥ आर यत स्वांश परिचित अवतार । सेइ सब शुद्धसत्त्व विष्णुतत्त्वसार ॥ १.२५ ॥ गोलोके वैकुण्ठे आर कारणसागरे । अथवा ए जडे थाके, विष्णुनाम धरे ॥ १.२६ ॥ प्रवेशि ए जड विश्व मायार अधीश । विष्णुनाम प्राप्त विभु सर्वदेव ईश ॥ १.२७ ॥ मायार ईश्वर मायी शुद्धसत्त्वमय । मिश्रसत्त्व मिश्रसत्त्व ब्रह्मा शिव आदि सब हय ॥ १.२८ ॥ चिद्वैभवेर विस्तृति ए समस्त विष्णुतत्त्व आर विष्णुधाम । तव चिद्वैभव नाथ तव लीलाग्राम ॥ १.२९ ॥ अचिद्वैभव मायतत्त्व विरजार एइ पारे यत वस्तु हय । अचित्वैभव तव चौद्दलोकमय ॥ १.३० ॥ मायार वैभव बलि बले देवीधाम । पञ्चभूत मनो बुद्धि अहङ्कार नाम ॥ १.३१ ॥ ए भूर्लोक, भुवर्लोक आर स्वर्गलोक । महर्लोक, जनतपसत्यब्रह्मलोक ॥ १.३२ ॥ अतलसुतलादि निम्न लोक सात । मायिक वैभव तव शुन जगन्नाथ ॥ १.३३ ॥ चिद्वैभव पूर्णतत्त्व माया छाया तार । जीववैभव चिद्अणुस्वरूप जीव वैभव प्रकार ॥ १.३४ ॥ चिद्धर्मवशतः जीव स्वतन्त्र गठन । सङ्ख्याय अनन्त सुख तार प्रयोजन ॥ १.३५ ॥ मुक्त जीव सेइ सुख हेतु यारा कृष्णेरे बरिल । कृष्णपारिषद मुक्तरूपेते रहिल ॥ १.३६ ॥ बद्ध वा बहिर्मुख जीव यारा पुनः निजसुख करिया भावना । पार्श्वस्थिता माया प्रति करिल कामना ॥ १.३७ ॥ सेइ सब नित्यकृष्णबहिर्मुख हैल । देवीधामे मायाकृत शरीर पाइल ॥ १.३८ ॥ पुण्य पाप कर्म चक्रे पडिया एखन । स्थूल लिङ्ग देहे सदा करेन भ्रमण ॥ १.३९ ॥ कभु स्वर्गे उठे, कभु निरये पडिया । चौराशि लक्ष योनि भोगे भ्रमिया भ्रमिया ॥ १.४० ॥ तथापि कृष्णदया तुमि विभु, तोमार वैभव जीव हय । दासेर मङ्गल चिन्ता तोमार निश्चय ॥ १.४१ ॥ दास याहा सुख मानि करे अन्वेषण । तुमि ताहा कृपा करि कर वितरण ॥ १.४२ ॥ प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड मायार वैभवे ये अनित्य सुख चाय तोमार कृपाय से अनायासे पाय ॥ १.४३ ॥ सेइ सुख प्राप्त्य्उपाय शुभकर्म यत । निरमिले धर्मयज्ञयोगहोमव्रत ॥ १.४४ ॥ सेइ सब शुभकर्म सदा जडमय । चिन्मयी प्रवृत्ति ताहे कभु ना मिलय ॥ १.४५ ॥ ताहार साधने साध्य जडमय फल । उच्चलोक भोग सुख ताहाते प्रबल ॥ १.४६ ॥ सेइ सब कर्मभोग नाहि आत्मशान्ति । ताहाते प्रयास करा अतिशय भ्रान्ति ॥ १.४७ ॥ सेइ सब शुभ कर्म उपाय हैया । अनित्य उपेय साधे लोक सुख दिया ॥ १.४८ ॥ सेइ अवस्था हैते उद्धारेर उपाय कभु यदि साधु सङ्गे जानिते से पारे । आमि जीव कृष्णदास, याय माया पारे ॥ १.४९ ॥ से विरल फल मात्र सुकृतिजनित । तुच्छ कर्मकाण्ड नाहि करिले विहित ॥ १.५० ॥ ज्ञानकाण्ड, ब्रह्मलय सुख आर यिनि मायार यन्त्रणा मात्र जानि । मुक्ति लाभे यत्नवान् तिनि हन ज्ञानी ॥ १.५१ ॥ से सब लोकेर जन्य तुमि दयामय । ज्ञानकाण्ड ब्रह्मविद्या दियाछ निश्चय ॥ १.५२ ॥ सेइ विद्या मायावाद करिया आश्रय । जड मुक्त हये ब्रह्मे जीव हय लय ॥ १.५३ ॥ ब्रह्मवस्तु कि? सेइ ब्रह्म तव अङ्गकान्ति ज्योतिर्मय । विरजार पारे स्थित ताते हय लय ॥ १.५४ ॥ ये सब असुरे विष्णु करेन संहार । ताहारौ सेइ ब्रह्मे याय मायापार ॥ १.५५ ॥ कृष्णबहिर्मुख कर्मी ज्ञानी उभये इ कृष्णबहिर्मुख । कभु नाहि आस्वादय कृष्णदास्यसुख ॥ १.५६ ॥ भक्त्य्उन्मुखी सुकृति भक्तिर उन्मुखी सेइ सुकृति प्रधान । तार फले जीव भक्तसाधुसङ्ग पान ॥ १.५७ ॥ श्रद्धावान् हये कृष्णभक्तसङ्ग करे । नामे रुचि, जीवे दया, भक्तिपथ धरे ॥ १.५८ ॥ कर्मी ओ ज्ञानीर प्रति कृपाय गौणपथ विधान दयार सागर तुमि जीवेर ईश्वर । कर्मी ज्ञानी बहिर्मुख उद्धारे तत्पर ॥ १.५९ ॥ कर्मपथे ज्ञानपथे पथिक ये जन । ताहार उद्धार लागि तोमार यतन ॥ १.६० ॥ सेइ सेइ पथिकेर मङ्गल चिन्तिया । गौणभक्ति पथ एक राखिल करिया ॥ १.६१ ॥ कर्मीर पक्षे कर्मेर गौणभक्ति पथ कर्मी वर्णाश्रमे थाकि साधुसङ्ग करि । कर्म माझे भक्ति करे गौणपथ धरि ॥ १.६२ ॥ तार कृत कर्म सब हृदय शोधिया । तिरोहित हय श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६३ ॥ ज्ञानीर गौणपथ ज्ञानी सुकृतिर बले भक्तेर कृपाय । अनन्य भक्तिते श्रद्धा बीजे स्थान दिया ॥ १.६४ ॥ तुमि बल मोर दास मायार विपाके । चाहे अन्य तुच्छ फल छाडिया आमाके ॥ १.६५ ॥ आमि जानि तार याते हय सुमङ्गल । भुक्ति मुक्ति छाडाइया दी भक्ति फल ॥ १.६६ ॥ गौणपथेर प्रक्रिया तार काम अनुसारे चालाञा ताहारे गौणपथ भक्तिमार्गे श्रद्धा दी तारे ॥ १.६७ ॥ ए तोमार कृपा प्रभु तुमि कृपामय । कृपा ना करिले किसे जीव शुद्ध हय ॥ १.६८ ॥ कलिते गौणपथेर दुर्दशा सत्ययुगे ध्यानयोगे कत ऋषिगणे । शुद्ध करिऽ दिले प्रभु निजभक्तिधने ॥ १.६९ ॥ त्रेतायुगे यज्ञकर्मे अनेक शोधिले । द्वापरे अर्चनमार्गे भक्ति बिलाइले ॥ १.७० ॥ कलि आगमने नाथ जीवेर दुर्दशा । देखि ज्ञान कर्म योग छाडिल भरसा ॥ १.७१ ॥ अल्प आयु, बहु पीडा, बलबुद्धिह्रास । एइ सब उपद्रव जीवे कैल ग्रास ॥ १.७२ ॥ वर्णाश्रम धर्म आर साङ्ख्य योग ज्ञान । कलिजीवे उद्धारिते नहे बलवान् ॥ १.७३ ॥ ज्ञानकर्मगत ये भक्तिर गौणपथ । कण्टके सङ्कीर्ण हञा हैल विपथ ॥ १.७४ ॥ पृथकुपाय धरि उपेय साधने । विघ्न बहुतर हैल जीवेर जीवने ॥ १.७५ ॥ नामालोचनार मुख्यपथ प्रभु तुमि जीवेर मङ्गल चिन्ता करि । कलि युगे नाम सङ्गे स्वयमवतरि ॥ १.७६ ॥ युग धर्म प्रचारिले नाम सङ्कीर्तन । मुख्य पथे जीव पाय कृष्ण प्रेम धन ॥ १.७७ ॥ नामेर स्मरणे आर नामसङ्कीर्तन । एइ मात्र धर्म जीव करिबे पालन ॥ १.७८ ॥ साध्यसाधन ओ उपाय उपेयेर अभेदताक्रमे नामेर मुख्यता येइ त साधन सेइ साध्य यबे हैल । उपाय उपेय मध्ये भेद ना रहिल ॥ १.७९ ॥ साध्येर साधने आर नाहि अन्तराय । अनायासे तरे जीव तोमार कृपाय ॥ १.८० ॥ आमि त अधम अति मजिया विषये । ना भजिनु नाम तव अति मूढ हये ॥ १.८१ ॥ दर दर धारा चक्षे ब्रह्महरिदास । पडिल प्रभुर पदे छाडिया निःश्वास ॥ १.८२ ॥ हरि भक्त भक्ति मात्रे विनोद याहार । हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ १.८३ ॥ इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नाममाहात्मसूचनं नाम प्रथमः परिच्छेदः । (२) द्वितीय परिच्छेद नामग्रहणविचार गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन । सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्त गण ॥ २.१ ॥ महाप्रेमे हरिदास करेन रोदन । प्रेमे तारे गौरचन्द्र दिला आलिङ्गन ॥ २.२ ॥ बलेन तोमार सम भक्त कोथा आर । सर्वतत्त्वज्ञाता तुमि सदा मायापार ॥ २.३ ॥ अनन्य भजनेर श्रेष्ठता निचकुले अवतरि देखाले सकले । धने माने कुले शीले कृष्ण नाहि मिले ॥ २.४ ॥ अनन्य भजने याङ्र श्रद्धा अतिशय । देवता अपेक्षा श्रेष्ठ सेइ महाशय ॥ २.५ ॥ श्रीहरिदासेर नामाचार्य्यता नामतत्त्व सर्वसार तोमार विदित । आचारे आचार्य्य तुमि प्रचारे पण्डित ॥ २.६ ॥ बल हरिदास नाममहिमा अपार । शुनिया तोमार मुखे आनन्द आमार ॥ २.७ ॥ वैष्णवलक्षण एक नाम यार मुखे वैष्णव से हय । तारे गृही यत्न करि मानिबे निश्चय ॥ २.८ ॥ वैष्णवतरलक्षण निरन्तर यार मुखे शुनि कृष्णनाम । सेइ से वैष्णवतर सर्वगुणधाम ॥ २.९ ॥ वैष्णवतमलक्षण वैष्णव उत्तम सेइ याहारे देखिले । कृष्णनाम आसे मुखे कृष्णभक्ति मिले ॥ २.१० ॥ हेन कृष्णनाम जीव कि रूपे करिबे । ताहार विधान तुमि आमारे बलिबे ॥ २.११ ॥ कर युडि हरिदास बलेन वचन । प्रेम गदगद स्वर सजल नयन ॥ २.१२ ॥ नामेर स्वरूप कृष्णनाम चिन्तामणि अनादि चिन्मय । येइ कृष्ण सेइ नाम एकतत्त्व हय ॥ २.१३ ॥ चैतन्य विग्रह नाम नित्य मुक्त तत्त्व । नाम नामी भिन्न नय नित्य शुद्ध सत्त्व ॥ २.१४ ॥ ए जड जगते ताङ्र अक्षर आकार । रसरूपे रसिकेते सत्त्व अवतार ॥ २.१५ ॥ कृष्ण वस्तु हय चारि धर्मे परिचित । नाम रूप गुण कर्म अनादि विहित ॥ २.१६ ॥ नाम नित्यसिद्ध नित्य वस्तु रसरूप कृष्ण से अद्वय । सेइ चारि परिचये वस्तु सिद्ध हय ॥ २.१७ ॥ सन्धिनी शक्तिते ताङ्र चारि परिचय । नित्यसिद्ध रूपे ख्यात सर्वदा चिन्मय ॥ २.१८ ॥ कृष्ण आकर्षये सर्व विश्वगत जन । सेइ नित्य धर्म गत कृष्ण नाम धन ॥ २.१९ ॥ कृष्णरूप नित्य कृष्णरूप कृष्ण हैते सर्वदा अभेद । नाम रूप एक वस्तु नाहिक प्रभेद ॥ २.२० ॥ श्रीनाम स्मरिले रूप आइसे सङ्गे सङ्गे । रूप नाम भिन्न नय नाचे नाना रङ्गे ॥ २.२१ ॥ कृष्णगुण नित्य कृष्णगुण चतुःषष्ठि अनन्त अपार । याङ्र निज अंशरूपे सब अवतार ॥ २.२२ ॥ याङ्र गुण अंशे ब्रह्मा शिवादि ईश्वर । याङ्र गुणे नारायण षष्ठि गुणेश्वर ॥ २.२३ ॥ सेइ सब नित्यगुणे नित्य नाम ताङ्र । अनन्त सङ्ख्याय व्याप्त वैकुण्ठ व्यापार ॥ २.२४ ॥ कृष्णलीलार नित्यत्व सेइ गुण तरङ्गेते लीलार विस्तार । गोलोके वैकुण्ठ व्रज सब चिद्आकारे ॥ २.२५ ॥ चिद्वस्तुते नाम, रूप, गुण, लीला वस्तु हैते पृथक्नय नाम रूप गुण लीला अभिन्न उदय । अचित्सम्पर्के बद्ध जीवे भिन्न हय ॥ २.२६ ॥ शुद्ध जीवे नाम रूप गुण क्रिया एक । जडाश्रित देहे भेद एइ से विवेक ॥ २.२७ ॥ कृष्णे नाहि जडगन्ध अतएव ताङ्य । नाम रूप गुण लीला एकतत्त्व भाय ॥ २.२८ ॥ नामेर सर्वमूलत्व एइ चारि परिचय मध्ये नाम ताङ्र । सकलेर आदि से प्रतीति सबाकार ॥ २.२९ ॥ अतएव नाम मात्र वैष्णवेर धर्म । नामे प्रस्फुटित हय रूप गुण कर्म ॥ २.३० ॥ कृष्णेर समग्र लीला नामे विद्यमान । नामे से परम तत्त्व तोमार विधान ॥ २.३१ ॥ वैष्णव ओ वैष्णवप्राये भेद आछे सेइ नाम बद्ध जीव श्रद्धा सहकारे । शुद्ध रूपे लैले वैष्णव बलि तारे ॥ २.३२ ॥ नामाभास यार हय से वैष्णवप्राय । कृष्णकृपा बले क्रमे शुद्ध भाव पाय ॥ २.३३ ॥ एइ मायिक जगते कृष्णनाम ओ जीव एइ दुइटि मात्र चिद्व्यापार नाम सम वस्तु नाइ ए भव संसारे । नामे से परम धन कृष्णेर भाण्डारे ॥ २.३४ ॥ जीव निजे चिद्व्यापारे कृष्णनाम आर । आर सब प्रापञ्चिक जगत्संसार ॥ २.३५ ॥ मुख्य गौण भेदे नाम दुइ प्रकार मुख्य ओ गौण भेदे कृष्णनाम द्विप्रकार । मुख्यनामाश्रये जीव पाय सर्व सार ॥ २.३६ ॥ चिल्लीला आश्रय करि यत कृष्ण नाम । सेइ सेइ मुख्य नाम सर्व गुण धाम ॥ २.३७ ॥ मुख्य नाम गोविन्द गोपाल राम श्रीनन्दनन्दन । राधानाथ हरि यशोमती प्राणधन ॥ २.३८ ॥ मदनमोहन श्यामसुन्दर माधव । गोपीनाथ व्रजगोप राखाल यादव ॥ २.३९ ॥ एइ रूप नित्य लीला प्रकाशक नाम । ए सब कीर्तने जीव पाय कृष्ण धाम ॥ २.४० ॥ गौण नाम ओ ताहार लक्षण जडा प्रकृतिर परिचये नाम यत । प्रकृतिर गुणे गौण वेदेर सम्मत ॥ २.४१ ॥ सृष्टिकर्ता परमात्मा ब्रह्म स्थितिकर । जगत्संहर्ता पाता यज्ञेश्वर हर ॥ २.४२ ॥ मुख्य ओ गौण नामेर फलभेद एइरूप नाम कर्मज्ञानकाण्डगत । पुण्य मोक्ष दान करे शास्त्रेर सम्मत ॥ २.४३ ॥ नामेर ये मुख्य फल कृष्ण प्रेम धन । तार मुख्य नामे मात्र लभे साधु गण ॥ २.४४ ॥ नाम ओ नामाभासमात्र फलभेद एक कृष्णनाम यदि मुखे बाहिराय । अथवा श्रवणपथे अन्तरेते याय ॥ २.४५ ॥ शुद्ध वर्ण हय वा अशुद्ध वर्ण हय । ताते जीव तरे एइ शास्त्रेर निर्णय ॥ २.४६ ॥ किन्तु एक कथा इथे आछे सुनिश्चित । नामाभास हैले विलम्बे हय हित ॥ २.४७ ॥ नामाभास हैले ओ अन्य शुभ हय । प्रेमधन केवल विलम्बे उपजय ॥ २.४८ ॥ नामाभासे पापक्षये शुद्ध नाम हय । तखने श्रीकृष्णप्रेम लभये निश्चय ॥ २.४९ ॥ व्यवहित वा व्यवधाने दोषे जन्मे किन्तु व्यवहित हले हय अपराध । सेइ अपराधे हय प्रेमलाभ बाध ॥ २.५० ॥ नामनामी भेदबुद्धि व्यवधान हय । व्यवहित थाकिले कदापि प्रेम नय ॥ २.५१ ॥ व्यवधान दुइ प्रकार वर्णव्यवधान आर तत्त्वव्यवधान । व्यवधान द्विप्रकार वेदेर विधान ॥ २.५२ ॥ मायावादे नामे तत्त्वव्यवधान करे तत्त्वव्यवधान मायावाद दुष्ट मत । कलिर जञ्जाल एइ शास्त्र असम्मत ॥ २.५३ ॥ व्यवधानाबिद्ध नामे शुद्ध नाम अतएव शुद्ध कृष्ण नाम याङ्र मुखे । ताङ्हाके वैष्णव जानि सदा सेवि सुखे ॥ २.५४ ॥ अनर्थ यत नष्ट हय तते नामाभासत्व दूर हय ओ चिन्मय नाम प्रकाश पाय नामाभास भेदि शुद्धनाम लभिबारे । सद्गुरु सेविबे जीव यत्न सहकारे ॥ २.५५ ॥ भजने अनर्थ नाश येइ क्षणे पाय । चित्स्वरूप नामे नाचे भक्तेर जीह्वाय ॥ २.५६ ॥ नाम से अमृत धारा नाहि छाडे आर । नाम रसे मत्त जीव नाचे अनिवार ॥ २.५७ ॥ नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन । जगत्नाचाय माया करे पलायन ॥ २.५८ ॥ याहार नामे श्रद्धा हय ताहारे नामे अधिकार हैया थाके नामे सर्वशक्ति आछे नामे अधिकार नरमात्रे कैले दान । सर्वशक्ति नामे प्रभु करिले विधान ॥ २.५९ ॥ यार श्रद्धा हय नामे सेइ अधिकारी । यार मुखे कृष्णनाम सेइ से आचारी ॥ २.६० ॥ देशकाल अशौचादिर बाधा नामे नाइ देश काल अशौचादि नियम सकाल । श्रीनामग्रहणे नाइ नाम से प्रबल ॥ २.६१ ॥ कलिजीवेर नामे निष्कपट विश्वास हैले इ नामे अधिकार हैल दाने यज्ञे स्नाने जपे आछे त विचार । कृष्णसङ्कीर्तने मात्र श्रद्धा अधिकार ॥ २.६२ ॥ युगधर्म हरिनाम अनन्य श्रद्धाय । ये करे आश्रय तार सर्वलाभ हय ॥ २.६३ ॥ कलि जीव निष्कपटे कृष्णेर संसारे । अवस्थित हये कृष्णनाम सदा करे ॥ २.६४ ॥ नामेर अनुकूल विषय ग्रहण ओ प्रतिकूल विसय वर्जन भजनेर अनुकूल सर्व कार्य्य करिऽ । भजनेर प्रतिकूल सब परिहरिऽ ॥ २.६५ ॥ कृष्णेर संसारे थाकिऽ काटाये जीवन । निरन्तर हरिनाम करेन स्मरण ॥ २.६६ ॥ अनन्य बुद्धिते नाम ग्रहण करिबे आर कोन धर्म कर्म कभु ना करिबे । स्वतन्त्र ईश्वरज्ञाने अन्ये ना पूजिबे ॥ २.६७ ॥ कृष्णनाम भक्तसेवा सतत करिबे । कृष्णप्रेम लाभ तार अवश्य हेबे ॥ २.६८ ॥ हरिदास काङ्दि प्रभु चरणे पडिया । नामे अनुराग मागे चरण धरिया ॥ २.६९ ॥ हरिदास पदे भक्तिविनोद याहार । हरिनाम चिन्तामणि जीवन ताहार ॥ २.७० ॥ इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ नामग्रहणविचारो नाम प्रथमः परिच्छेदः । (३) तृतीय परिच्छेद नामाभास विचार गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन । सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन ॥ ३.१ ॥ हरिदासे महाप्रभु सदय हैया । उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया ॥ ३.२ ॥ बले शुन हरिदास आमार वचन । नामाभास स्पष्टरूपे बुझाओ एखन ॥ ३.३ ॥ नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध हबे । अनायासे जीव नामगुणे तरे याबे ॥ ३.४ ॥ नामाभासमेघ कुज्झटिकारूप अज्ञान ओ अनर्थ नाम सूर्यसम नाशे माया अन्धकार । मेघ कुज्झटिका नामे ढाके बार बार ॥ ३.५ ॥ जीवेर अज्ञान आर अनर्थ सकल । कुज्झटिकामेघरूपे हय त प्रबल ॥ ३.६ ॥ कृष्णनाम सूर्य चित्तगगणे उठिल । कुज्झटिकामेघ पुनः ताहारे ढाकिल ॥ ३.७ ॥ अज्ञान कुज्झटिका स्वरूप भ्रम नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने । से अज्ञान कुज्झटिका अन्धकार आने ॥ ३.८ ॥ कृष्ण सर्वेश्वर बलि नाहि जाने येइ । नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ ॥ ३.९ ॥ जीवे चित्स्वरूप बलि नाहि यार ज्ञान । माया जडाश्रये तार सतत अज्ञान ॥ ३.१० ॥ तबे हरिदास बले आज आमि धन्य । मम मुखे नाम कथा शुनिबे चैतन्य ॥ ३.११ ॥ कृष्ण जीव प्रभु दास जडात्मिका माया । ये ना जाने तार शिरे अज्ञानेर छाया ॥ ३.१२ ॥ मेघ अनर्थासत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध असत्तृष्णा, हृदयदौर्बल्य, अपराध । अनर्थ ए सब मेघरूपे करे बाध ॥ ३.१३ ॥ नामसूर्य रश्मि ढाके नामाभास हय । स्वतः सिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय ॥ ३.१४ ॥ नामाभासेर अवधि सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत्ना हय । तावत्से नामाभास जीवेर आश्रय ॥ ३.१५ ॥ साधक यद्यपि पाय सद्गुरु आश्रय । भजननैपुण्ये मेघ आदि दूर हय ॥ ३.१६ ॥ सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन मेघ कुज्झटिका गेले नामदिवाकर । प्रकाश हैया भक्ते देन प्रेमवर ॥ ३.१७ ॥ सद्गुरु सम्बन्ध ज्ञान करिया अर्पण । अभिधेय रूपे करान नामानुशीलन ॥ ३.१८ ॥ नामसूर्य स्वल्पकाले प्रबल हैया । अनर्थकुज्झटिका देन ताडाइया ॥ ३.१९ ॥ प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन । प्राप्तप्रेम जीव करे नामसङ्कीर्तन ॥ ३.२० ॥ सम्बन्धज्ञान सद्गुरुचरणे जीव श्रद्धा सहकारे । प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे ॥ ३.२१ ॥ कृष्ण नित्य प्रभु आर जीव नित्य दास । कृष्ण प्रेम नित्य जीवस्वभाव प्रकाश ॥ ३.२२ ॥ कृष्ण नित्य दास जीव ताहा विस्मरिया । मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया ॥ ३.२३ ॥ मायिक जगथय जीव कारागार । जीवेर वैमुख्य दोषे दण्ड प्रतिकार ॥ ३.२४ ॥ तबे यदि जीव साधु वैष्णव कृपाय । सम्बन्ध ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ॥ ३.२५ ॥ तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार । याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ॥ ३.२६ ॥ यावत्सम्बन्ध ज्ञान स्थिर नाहि हय । तावतनर्थे नामाभासेर आश्रय ॥ ३.२७ ॥ नामाभासेर फल नामाभास दशाते ओ अनेक मङ्गल । जीवेर अवश्य हय सुकृति प्रबल ॥ ३.२८ ॥ नामाभासे नष्ट हय आछे पाप यत । नामाभासे मुक्ति हय कलि हय हत ॥ ३.२९ ॥ नामाभासे नर हय सुपङ्क्ति पावन । नामाभासे सर्वरोग हय निवारण ॥ ३.३० ॥ सकल आशङ्का नामाभासे दूर हय । नामाभासी सर्वारिष्ट हैते शान्ति पाय ॥ ३.३१ ॥ यक्ष रक्ष भूत प्रेत ग्रह समुदय । नामाभासे सकल अनर्थ दूरे याय ॥ ३.३२ ॥ नरके पतित लोक सुखे मुक्ति पाय । समस्त प्रारब्ध कर्म नामाभासे याय ॥ ३.३३ ॥ सर्ववेदाधिक सर्व तीर्थ हैते बड । नामाभास सर्वशुभकर्म श्रेष्ठतर ॥ ३.३४ ॥ नामाभासेर वैकुण्ठादिप्रापकत्व धर्म अर्थ काम मोक्ष चतुर्वर्गदाता । सर्वशक्ति धरे नामाभासे जीवत्राता ॥ ३.३५ ॥ जगतानन्दकर श्रेष्ठपदप्रद । अगतिर एक गति सर्वश्रेष्ठपद ॥ ३.३६ ॥ वैकुण्ठादि लोक प्राप्ति नामाभासे हय । विशेषतः कलियुगे सर्वशास्त्र कय ॥ ३.३७ ॥ सङ्केत, परिहास, स्तोभ ओ हेला एइ चारिप्रकार नामाभास चतुर्विध नामाभास एइ मात्र जानि । सङ्केत ओ परिहास, स्तोभ, हेला मानि ॥ ३.३८ ॥ सङ्केतरूप नामाभासेर प्रकारद्वय विष्णु लक्ष्य करि जड बुद्ध्ये नाम लय । अन्य लक्ष्य करि विष्णु नाम उच्चारय ॥ ३.३९ ॥ सङ्गेते द्विविध एइ हय नामाभास । अजामिल साक्षी तार शास्त्रेते प्रकाश ॥ ३.४० ॥ यवन सकल मुक्त हबे अनायासे । हाराम हाराम बलि कहे नामाभासे ॥ ३.४१ ॥ अन्यत्र सङ्केते यदि हय नामाभास । तथापि नामेर तेज ना हय विनाश ॥ ३.४२ ॥ परिहासनामाभास परिहासे कृष्णनाम येइ जन करे । जरासन्ध सम सेइ ए संसारे तरे ॥ ३.४३ ॥ स्तोभ नामाभास अङ्गभङ्गी चैद्य सम करे नामाभास । स्तोभ मात्र हय तबु नाशे भवपाश ॥ ३.४४ ॥ हेला नामाभास मन नाहि देय आर अवज्ञा भावेते । कृष्ण राम बले हेला नामाभास ताते ॥ ३.४५ ॥ एइ सब नामाभासे म्लेच्छगण तरे । विषयी अलस जन एइ पथ धरे ॥ ३.४६ ॥ श्रद्धा ओ हेला नामाभासेर भेद श्रद्धा करि करे नाम अनर्थ सहित । श्रद्धा नाम हय सेइ तोमार विहित ॥ ३.४७ ॥ सङ्केतादि अवज्ञा पर्यन्त भाव धरि । नाम करे हेलाय ये श्रद्धा परिहरि ॥ ३.४८ ॥ नामाभास अवधि से हेला नाम हय । ताहाते ओ मुक्ति लभे पाप हय क्षय ॥ ३.४९ ॥ अनर्थनाशे नामाभास नाम हैया प्रेम देय कृष्ण प्रेम छाडि सब नामाभासे पाय । नामाभासे पुनः शुद्ध नाम हये याय ॥ ३.५० ॥ अनर्थ विगते यबे शुद्ध नाम हय । कृष्णप्रेम तबे तार हेबे निश्चय ॥ ३.५१ ॥ नामाभासे साक्षात्से प्रेम दिते नारे । नाम हये प्रेम देय विधि अनुसारे ॥ ३.५२ ॥ नामाभास ओ नामापराधेर भेद अतएव नाम अपराध परिहरि । नामाभास करे येइ तारे नति करि ॥ ३.५३ ॥ कर्म ज्ञान हैते अनन्त श्रेष्ठतर । बलि नामाभासे जानि ओहे सर्वेश्वर ॥ ३.५४ ॥ रति मूला श्रद्धा यदि शुद्धभावे हय । तबे त विशुद्ध नाम हेबे उदय ॥ ३.५५ ॥ छाया ओ प्रतिबिम्ब भेदे आभास दुइ प्रकार छाया नामाभास आभास द्विविध हय प्रतिबिम्ब छाया । श्रद्धाभास द्विप्रकार सब तव माया ॥ ३.५६ ॥ छाया श्रद्धाभासे छायानामाभास हय । सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय ॥ ३.५७ ॥ प्रतिबिम्ब नामाभास अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन । निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन ॥ ३.५८ ॥ भोग मोक्ष वाञ्छा ताहे थाके नित्य मिशि । अश्रमे अभीष्ट लाभे यते दिवानिशि ॥ ३.५९ ॥ श्रद्धार लक्षण मात्र श्रद्धा ताहे नय । ताके प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास शास्त्रे कय ॥ ३.६० ॥ प्रतिबिम्ब श्रद्धाभासे नामाभास यत । प्रतिबिम्बनामाभास हय अविरत ॥ ३.६१ ॥ प्रतिबिम्ब नामाभासे मायावाद कपटता उत्पन्न करे एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत । प्रवेशिया शठताय हय परिणत ॥ ३.६२ ॥ कपट प्रतिबिम्बनामाभास नामापराध नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि । नामेर महिमा नाशि अपराधे मरि ॥ ३.६३ ॥ छाया नामाभास ओ प्रतिबिम्बनामाभासेर भेद छाया नामाभासे मात्र हयत अज्ञान । हृदयदौर्बल्य हैते अनर्थ विधान ॥ ३.६४ ॥ सेइ सब दोषे नाम करेन मार्जन । प्रतिबिम्ब नामाभासे दोषेर वर्धन ॥ ३.६५ ॥ मायावाद ओ भक्ति इङ्हारा परस्पर विपरीत धर्म मायावादे अपराध कृष्णनाम रूप गुण लीलादि सकल । मायावादिमते मिथ्या नश्वर सकल ॥ ३.६६ ॥ सेइ मते प्रेमतत्त्व नित्य नाहि हय । भक्तिविपरीत मायावाद सुनिश्चय ॥ ३.६७ ॥ भक्तिवैरी मध्ये मायावादेर गणन । अतएव मायावादी अपराधी हन ॥ ३.६८ ॥ मायावादि मुखे नाम नाहि बाहिराय । नाम बाहिराय तबु नामत्व ना पाय ॥ ३.६९ ॥ मायावादी यदि करे नाम उच्चारण । नामके अनित्य बलि लभये पतन ॥ ३.७० ॥ नामेर निकटे भोगमोक्षेर प्रार्थना । नामेर निकटे शाठ्य फलेते यातना ॥ ३.७१ ॥ मायावादीर अपराध कखन छाडे तबे यदि मायावादी भुक्ति मुक्ति आश । छाडिया करये नाम हये कृष्णदास ॥ ३.७२ ॥ तबे तारे छाडे मायावाद दुष्टमत । अनुताप सह हय नाम अनुगत ॥ ३.७३ ॥ साधु सङ्गे करे पुनः श्रवण कीर्तन । सुसम्बन्ध ज्ञान तार उदे तत क्षण ॥ ३.७४ ॥ अविश्रान्त नाम करे पडे चक्षु जल । नाम कृपा पाय चित्त हय त सबल ॥ ३.७५ ॥ भक्तिके अनित्य बलिया मायावाद अपराध हेयाछे कृष्णरूप कृष्णदास्य जीवेर स्वभाव । मायावाद अनित्य कल्पित बले सब ॥ ३.७६ ॥ हेन मायावाद नाम अपरादे गणि । मायावाद हय सर्व विपदेर खनि ॥ ३.७७ ॥ मायावादी नामाभासे युक्त्य्आभासरूपे सायुज्य लाभ करे नामाभास कल्पतरु मायावादिजने । अभीष्ट अर्पण करे सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.७८ ॥ सर्वशक्ति नामे आछे ताइ नामाभासे । प्रतिबिम्ब हेले ओ देन मुक्त्य्आभासे ॥ ३.७९ ॥ पञ्चविध मुक्ति मध्ये सायुज्य आभास । भव क्लेश नाशे मात्र फले सर्वनाश ॥ ३.८० ॥ मायावादी नित्यसुख पाय ना मायाय मोहित जन ताहे सुख माने । सुखाभास मात्र पाय सायुज्य निर्वाणे ॥ ३.८१ ॥ सच्चित्आनन्द सेवा परम निर्वृति । सायुज्य ना पाय कभु हतकृष्णस्मृति ॥ ३.८२ ॥ याङ्हा नाहि भक्ति प्रेम नित्यता विश्वास । नित्य सुख कैछे ताहे हेबे प्रकाश ॥ ३.८३ ॥ छाया नामाभासी दुष्टमते ना प्रवेश करिले क्रमे शुद्ध नाम पाइया थाकेन छाया नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत । मतवादे चित्तबले नहे तार हत ॥ ३.८४ ॥ से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव । से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव ॥ ३.८५ ॥ मेघाच्छन्ने सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय । किन्तु मेघे नाशि सूर्य करेन उदय ॥ ३.८६ ॥ छाया नामाभासी धन्य सद्गुरु प्रभावे । अल्पदिने नाम प्रेम अनायासे पाबे ॥ ३.८७ ॥ भक्तेर मायावादीर सङ्ग अवश्य परित्याज्य मायावादी सङ्ग तेङ्ह सतर्के छाडिया । शुद्ध नाम परायण तुषिबे सेविया ॥ ३.८८ ॥ एइ त तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य । सेइ आज्ञा येइ पाले सेइ जीव धन्य ॥ ३.८९ ॥ ये ना पाले तव आज्ञा सेइ जीव छार । कोटी जन्मे किछुते इ ना हबे उद्धार ॥ ३.९० ॥ कुसङ्ग छाडिये प्रभु राख तव पाय । तव पादपद्म विना ना देखि उपाय ॥ ३.९१ ॥ हरिदास पदद्वन्द्वे विनोद याहार । हरिनामचिन्तामणि सदा गान तार ॥ ३.९२ ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम तृतीयः परिच्छेदः । (४) चतुर्थ परिच्छेद नाम अपराधसाधु निन्दा सतां निन्दा नाम्नः परममपराधं वितनुते यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हाम् । गदाधरप्राण जय जाह्नवाजीवन । जय सीतानाथ श्रीवासादि भक्तजन ॥ ४.१ ॥ प्रभु बले हरिदास एबे सविस्तारे । नाम अपराध व्याख्या कर अतःपर ॥ ४.२ ॥ हरिदास बले प्रभु मोरे या बलाबे । ताहाइ बलिब आमि तोमार प्रभावे ॥ ४.३ ॥ दशविध नामापराध नाम अपराध दशविध शास्त्रे कय । सेइ अपराधे मोर बड हय भय ॥ ४.४ ॥ एक एक करि आमि बलिब सकल । अपराधे वाङ्चि याते देह मोरे बल ॥ ४.५ ॥ साधुनिन्दा अन्यदेव स्वातन्त्र्य मनन । नाम तत्त्व गुरु आर शास्त्र विनिन्दन ॥ ४.६ ॥ हरिनामे अर्थ वाद कल्पित मनन । नामबले पाप श्रद्धाहीने नामार्पण ॥ ४.७ ॥ अन्य शुभकर्मेर समान कृष्णनाम । ए कथा बलिले अपराध अविश्राम ॥ ४.८ ॥ नामेते अनवधान हय अपराध । ताहाके पुराण कर्ता बलेन प्रमाद ॥ ४.९ ॥ नामेर माहात्म्य जाने तबु नाहि भजे । अहं मम आसक्तिते संसारेते मजे ॥ ४.१० ॥ साधुनिन्दाइ प्रथम अपराध साधुनिन्दा प्रथमापराध बलिऽ जानि । एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ॥ ४.११ ॥ स्वरूप ओ तटस्थ लक्षण भेदे साधु लक्षण द्वय विचार साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो । एकादशे उद्धवेरे कृष्णरूपे विभो ॥ ४.१२ ॥ दयालु सहिष्णु सम द्रोहशून्यव्रत । सत्यसार विशुद्धात्मा परहिते रत ॥ ४.१३ ॥ कामे अक्षुभित बुद्धि दान्त अकिञ्चन । मृदु शुचि परिमितभोजी शान्तमन ॥ ४.१४ ॥ अनीह धृतिमान् स्थिर कृष्णैकशरण । अप्रमत्त सुगम्भीर विजित षड्गुण ॥ ४.१५ ॥ अमानी मानद दक्ष अवञ्चक ज्ञानी । एइ सब लक्षणेते साधु बलि जानि ॥ ४.१६ ॥ एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार । स्वरूप तटस्थ भेदे करिब विचार ॥ ४.१७ ॥ स्वरूपलक्षणे प्रधान लक्षण, तद्आश्रये तटस्थ लक्षण उदय हय कृष्णैकशरण हय स्वरूपलक्षण । तटस्थ लक्षणे अन्य गुणेर गणन ॥ ४.१८ ॥ कोन भाग्ये साधुसङ्गे नामे रुचि हय । कृष्णनाम गाय करे कृष्णपादाश्रय ॥ ४.१९ ॥ स्वरूप लक्षण सेइ हेत हेल । गाइते गाइते नाम अन्य गुण आइल ॥ ४.२० ॥ अन्य गुणगण ताइ तटस्थ गणन । अवश्य वैष्णव देहे हबे सङ्घटन ॥ ४.२१ ॥ वर्णाश्रम लिङ्ग, नानाप्रकार वेषद्वारा साधुत्व हय ना, कृष्णैकशरणताइ साधुर लक्षण वर्णाश्रम चिह्न नानावेषेर रचना । साधुर लक्षणे कभु ना हय गणना ॥ ४.२२ ॥ श्रीकृष्णशरणागति साधुर लक्षण । तार मुखे हय कृष्णनामसङ्कीर्तन ॥ ४.२३ ॥ गृही ब्रह्मचारी वानप्रस्थ न्यासिभेदे । शूद्र वैश्य क्षत्र विप्रगणेर प्रभेदे ॥ ४.२४ ॥ साधुत्व कखन नाहि हेबे निर्णीत । कृष्णैकशरण साधु शास्त्रेर विहित ॥ ४.२५ ॥ गृहिसाधुलक्षण रघुनाथदासे लक्ष्ये करिया सेवार । गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार ॥ ४.२६ ॥ स्थिर हये घरे याओ ना हओ बातुल । क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकुल ॥ ४.२७ ॥ मर्कट वैराग्य छाड लोक देखाइया । यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा ॥ ४.२८ ॥ अन्तरे निष्ठा कर बाह्ये लोक व्यवहार । अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ॥ ४.२९ ॥ गृहत्यागी साधुलक्षण पुनः तुमि तार देखि वैराग्य ग्रहण । एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण ॥ ४.३० ॥ ग्राम्यकथा ना शुनिबे ग्राम्यवार्ता ना कहिबे । भाल ना खाइबे आर भाल ना परिबे ॥ ४.३१ ॥ अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे । व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे ॥ ४.३२ ॥ गृही ओ गृहत्यागी उभयेरे स्वरूप लक्षण स्वरूप लक्षण एक सर्वत्र समान । आश्रमादि भेदे पृथक्तटस्थ विधान ॥ ४.३३ ॥ अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार । तथापि से साधु बलि सेव्य सबाकार ॥ ४.३४ ॥ एइ त श्रीकृष्णवाक्य गीताभागवते । इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते ॥ ४.३५ ॥ इहाते आछे त एक निगूढ सिद्धान्त । कृपा करि जानायेछ ताइ पाइ अन्त ॥ ४.३६ ॥ पूर्वपापेर गन्धावशेष ओ पूर्वपाप लक्ष्य करिया यिनि कृष्णैकशरण साधुर निन्दा करेन, तिनि नामापराधी कृष्णनामे रुचि यबे हेबे उदय । एक नामे पूर्व पाप हेबेक क्षय ॥ ४.३७ ॥ पूर्वपाप गन्ध तबु थाके किछु दिन । नामेर प्रभावे क्रम हञा पडे क्षीण ॥ ४.३८ ॥ शीघ्र सेइ पापगन्ध विदूरित हय । परम धर्मात्मा बलि हय परिचय ॥ ४.३९ ॥ ये कयेक दिन सेइ गन्ध नाहि याय । साधारण जन चक्षे पाप बलि भाय ॥ ४.४० ॥ से पाप देखिया येइ साधुनिन्दा करे । पूर्वपाप लक्षि पुनः अवज्ञा आचरे ॥ ४.४१ ॥ सेइ त पाषण्डी वैष्णवेर निन्दा दोषे । नाम अपराध मजि पडे कृष्णरोषे ॥ ४.४२ ॥ कृष्णैकशरणताइ साधु लक्षण आपनाके साधु बलिया परिचय देओया दाम्भिकता कृष्णैकशरण मात्र कृष्णनाम गाय । साधुनामे परिचित कृष्णेर कृपाय ॥ ४.४३ ॥ कृष्णभक्त व्यतीत नाहिक साधु आर । आमि साधु बलि हय दम्भ अवतार ॥ ४.४४ ॥ स्वल्पाक्षरे साधुनिर्णय से बलिबे आमि दीन कृष्णैकशरण । कृष्णनाम यार मुखे साधु सेइ जन ॥ ४.४५ ॥ तृण हैते हीन बलि आपनाके जाने । सहिष्णु तरुर न्याय आपनाके माने ॥ ४.४६ ॥ निजे त अमानी आर सकले मानद । तार मुखे कृष्णनाम कृष्णरतिप्रद ॥ ४.४७ ॥ नामापराध वैष्णवे साधु, तद्देहे कृष्णशक्ति हेन साधुमुखे यबे शुनि एक नाम । वैष्णव बलिया तारे करिब प्रणाम ॥ ४.४८ ॥ वैष्णव से जगद्गुरु जगतेर बन्धु । वैष्णव सकल जीवे सदा कृपा सिन्धु ॥ ४.४९ ॥ ए हेन वैष्णवनिन्दा येइ जन करे । नरके पडिबे से जन्मजन्मान्तरे ॥ ४.५० ॥ भक्ति लभिबारे आर नाहिक उपाय । भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय ॥ ४.५१ ॥ वैष्णव देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति । सेइ देह स्पर्शे अन्ये हय कृष्णभक्ति ॥ ४.५२ ॥ वैष्णव अधरामृत आर पद जल । वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल ॥ ४.५३ ॥ वैष्णवेर शक्ति सञ्चार वैष्णवनिकटे यदि बैसे कतलक्षण । देह हैते हय कृष्णशक्ति निःसरण ॥ ४.५४ ॥ सेइ शक्ति श्रद्धावान् हृदये पशिया । भक्तिर उदय करे देह काङ्पाइया ॥ ४.५५ ॥ ये बसिल वैष्णवेर निकटे श्रद्धाय । ताहार हृदये भक्ति हेबे उदय ॥ ४.५६ ॥ प्रथमे आसिबे तार मुखे कृष्णनाम । नामेर प्रभावे पाबे सर्वगुणग्राम ॥ ४.५७ ॥ वैष्णवेर कि कि दोष धरिले वैष्णवनिन्दा हयजातिदोष पूर्वदोष नष्टप्राय अवशिष्ट दोष कादाचित्क दोष वैष्णवेर जाति आर पूर्व दोष धरे । कादाचित्क दोष देखि येइ निन्दा करे ॥ ४.५८ ॥ नष्टप्राय दोष लये करे अपमान । यमदण्डे कष्ट पाय से सब अज्ञान ॥ ४.५९ ॥ वैष्णवेर मुखे नाममाहात्म्यप्रचार । से वैष्णवनिन्दा कृष्ण नाहि सहे आर ॥ ४.६० ॥ धर्म योग याग ज्ञानकाण्ड परिहरि । ये भजिल कृष्णनाम सेइ सर्वोपरि ॥ ४.६१ ॥ अन्य देव शास्त्र निन्दादिशून्य नामाश्रयी साधु अन्यदेर अन्यशास्त्र ना करि निन्दन । नामेर आश्रय लय शुद्ध साधुजन ॥ ४.६२ ॥ से साधु गृहस्थ हो अथवा सन्न्यासी । ताहार चरणरेणु पाइते प्रयासी ॥ ४.६३ ॥ याब यत नामे रति से तत वैष्णव । वैष्णवेर क्रम एइ मते अनुभव ॥ ४.६४ ॥ इथे वर्णाश्रम धन पाण्डित्य यौवन । कोन कार्य नाहि करे रूप बल जन ॥ ४.६५ ॥ अतएव यिनि करिलेन नामाश्रय । साधुनिन्दा छाडिबेन ए धर्म निश्चय ॥ ४.६६ ॥ नामाश्रया शुद्धा भक्ति भक्त भक्तिरूपा । भक्त भक्तिविवर्जिता हेले विरूपा ॥ ४.६७ ॥ याङ्हा साधुनिन्दा ताङ्हा नाहि भक्ति स्थिति । अतएव अपराधे तथा परिणति ॥ ४.६८ ॥ साधुनिन्दा छाडि भक्त साधुभक्ति करे । साधुसङ्ग साधुसेवा एइ धर्माचरे ॥ ४.६९ ॥ असत्सङ्ग दुइ प्रकार, तन्मध्ये स्त्रीसङ्गी असत्सङ्गत्यागे हय वैष्णवाचार । असत्सङ्गे हय साध्ववज्ञा अपार ॥ ४.७० ॥ असत्ये द्विप्रकार सर्वशास्त्रे कय । सेइ दुइयेर मध्ये योषित्सङ्गी एक हय ॥ ४.७१ ॥ योषित्सङ्गिसङ्गी पुनः तार मध्ये गण्य । तार सङ्गत्यागे जीव हेबेक धन्य ॥ ४.७२ ॥ योषित्सङ्गी काहाके बले कृष्णेरे संसारे ये दाम्पत्य धर्म थाके । असत्बलिया शास्त्र ना बले ताहाके ॥ ४.७३ ॥ अधर्म संयोगे आर स्त्रैण भावे रत । योषित्सङ्गी जन दुष्ट शास्त्रेर सम्मत ॥ ४.७४ ॥ द्वितीय प्रकार असत्(कृष्णेते अभक्त) तिन प्रकार कृष्णेते अभक्त असत्द्वितीय प्रकार । मायावादी धर्मध्वजी निरीश्वर आर ॥ ४.७५ ॥ यिनि बलेन, एइ सब लोकेर निन्दाके ओ साधुनिन्दा बले तिन्यो वर्ज्य वर्जिले ए सब सङ्ग साधुनिन्दा नय । इहाके ये निन्दा बले सेइ वर्ज्य हय ॥ ४.७६ ॥ एइ सब सङ्ग छाडि अनन्यशरण । कृष्णनाम करि पाय कृष्णप्रेमधन ॥ ४.७७ ॥ वैष्णवाभास, प्राकृतवैष्णव, वैष्णवप्राय ओ कनिष्ठवैष्णवैइ सकल एके कथा साधुसेवाहीन अर्चे लौकिक श्रद्धाय । प्राकृत वैष्णव हय वैष्णवेर प्राय ॥ ४.७८ ॥ वैष्णवाभास सेइ नहे तऽ वैष्णव । केमने पाइबे साधुसङ्गेर वैष्णव ॥ ४.७९ ॥ अतएव कनिष्ठ मध्येते तारे गणि । तारे कृपा करिबेन वैष्णव आपनि ॥ ४.८० ॥ मध्यम वैष्णव कृष्णप्रेम कृष्णभक्ते मैत्री आचरण । बालिशेते कृपा आर द्वेषी उपेक्षण ॥ ४.८१ ॥ करिले मध्यम भक्त शुद्ध भक्त हन । कृष्णनाम्ने अधिकार करेन अर्जन ॥ ४.८२ ॥ उत्तम वैष्णव सर्वत्र याङ्हार हय कृष्णदरशन । कृष्णे सकलेर स्थिति कृष्ण प्राण धन ॥ ४.८३ ॥ वैष्णवावैष्णवभेद नाहि थाके ताङ्र । वैष्णव उत्तम तिनि कृष्णनामसार ॥ ४.८४ ॥ मध्यम वैष्णवे साधु सेवा करेन अतएव मध्यम वैष्णव महाशय । साधु सेवा रत सदा थाकेन निश्चय ॥ ४.८५ ॥ प्राकृत वैष्णव नामाभासेर अधिकारी प्राकृत वैष्णव येइ वैष्णवेर प्राय । नामाभासे अधिकारी सर्वशास्त्र पाय ॥ ४.८६ ॥ मध्यम वैष्णव नामाधिकारी ओ नामापराध विचार करिबेन मध्यम वैष्णव मात्र नामे अधिकारी । श्रीनामभजने अपराधेर विचारी ॥ ४.८७ ॥ उत्तम वैष्णवे अपराध असम्भव । सर्वत्र देखेन तिनि कृष्णेर वैभव ॥ ४.८८ ॥ निज निज अधिकार करिया विचार । साधुनिन्दा अपराध करि परिहार ॥ ४.८९ ॥ साधु सङ्ग साधु सेवा नाम सङ्कीर्तन । सर्व जीवे दया एइ भक्त आचरण ॥ ४.९० ॥ साधु निन्दा घटिले कि करा कर्तव्य ? प्रमादे यद्यपि घटे साधुविगर्हण । तबे अनुतापे धरि से साधुचरण ॥ ४.९१ ॥ काङ्दिया बलिब प्रभो क्षमि अपराध । ए दुष्टनिन्दके कर वैष्णवप्रसाद ॥ ४.९२ ॥ साधु बड दयामय तबे आर्द्रमने । क्षमिबेन अपराध कृपा आलिङ्गने ॥ ४.९३ ॥ एइ त प्रथम अपराधेर विचार । श्रीचरणे निवेदिनु आज्ञा अनुसार ॥ ४.९४ ॥ हरिदास पादपद्मे भ्रर ये जन । हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ॥ ४.९५ ॥ इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ साधुनिन्दापराधविचारो नाम चतुर्थः परिच्छेदः । (५) पञ्चम परिच्छेद देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानापराध शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादिसकलं धिया भिन्नं पश्येत्स खलु हरिनामाहितकरः जय गदाधरप्राण जाह्नवाजीवन । जय सीतानाथ जय गौर भक्तजन ॥ ५.१ ॥ हरिदास बले तबे करि योडहात । द्वितीयापराध एबे शुन जगन्नाथ ॥ ५.२ ॥ विष्णुतत्त्व परम अद्वय ज्ञान विष्णु परतत्त्व । चित्स्वरूप जगदीश सदा शुद्धसत्त्व ॥ ५.३ ॥ गोलोकविहारी कृष्ण से तत्त्वेर सार । चतुःषष्ठि गुणे अलङ्कृत रसाधार ॥ ५.४ ॥ षष्ठिगुण नारायण स्वरूपे प्रकाश । सेइ षष्ठिगुण विष्णुसामान्यविलास ॥ ५.५ ॥ पुरुषावतारे आर स्वांश अवतारे । सेइ षष्ठिगुण स्पष्ट कार्य अनुसारे ॥ ५.६ ॥ विष्णुर विभिन्नांशेर प्रकार भेद जीवेर पञ्चाशद्गुण विष्णुर ये विभिन्नांश दुइ त प्रकार । पञ्चाशत्गुण जीवे बिन्दु बिन्दु आर ॥ ५.७ ॥ गिरिशादि देवता विभिन्नांश हैयौ सामान्य जीव नन् ताङ्हारा पञ्चाशत्गुणविशिष्ट गिरिशादि देवे एइ गुण पञ्चाशत् । तद्अधिक परिमाणे सर्वदा संयुत ॥ ५.८ ॥ तद्व्यतीत आर पञ्च गुण अंश माने । प्रकाशित आछे तबे विचित्रविधाने ॥ ५.९ ॥ षष्ठिगुणे विष्णुत्व सेइ पञ्च पञ्चाशत्गुणपूर्ण ताय । विष्णुते विराजमान सर्व शास्त्रे गाय ॥ ५.१० ॥ तद्व्यतीत आर पञ्चगुण नारायणे । आछे तार सत्ता कभु नाहि अन्य जने ॥ ५.११ ॥ षष्ठिगुणे विष्णुतत्त्व परम ईश्वर । गिरिश आदि अन्यदेव ताङ्हार किङ्कर ॥ ५.१२ ॥ विभिन्नांश गिरिशादि जीव श्रेष्ठतर । विष्णु सर्वजीवेश्वर सर्वदेवेश्वर ॥ ५.१३ ॥ अज्ञानव्यक्ति अन्य देवतार सहित विष्णुके समान मने करे अन्यदेव सह सम विष्णुके ये माने । से बड अज्ञान ईशतत्त्व नाहि जाने ॥ ५.१४ ॥ ए जड जगते विष्णु परम ईश्वर । गिरिशादि यत देव ताङ्र विधिकर ॥ ५.१५ ॥ केह बले मायार त्रिगुणे त्रिदिवेश । सर्वदा समान ब्रह्म तत्त्व सविशेष ॥ ५.१६ ॥ नानाविध वादानुवादेर सिद्धान्त शास्त्रेर सिद्धान्ते तबु पूज्य नारायण । ब्रह्मा शिव सृष्टिलय कार्येर कारण ॥ ५.१७ ॥ वासुदेव छाडि येइ अन्यदेवे भजे । ईश्वर छाडिया सेइ संसारेते मजे ॥ ५.१८ ॥ केह बले, ष्विष्णु परतत्त्व बटे जानि । सर्वविष्णुमय विश्व वेदवाक्य मानि ॥ ५.१९ ॥ अतएव सर्वदेवे विष्णु अधिष्ठान । सर्व देवार्चने हय विष्णुर समान ॥ ५.२० ॥ एइ त निषेधपर वाक्य विधि नय । अन्य देव पूजार निषेध एइ हय ॥ ५.२१ ॥ सर्व विष्णुमय विश्व ए कथा बलिले । विष्णुपूजा कैले सब देवे पूजा मिले ॥ ५.२२ ॥ तरुमूले जल दिले शाखार उल्लास । पल्लवे ढालिले जल वृक्षेर विनाश ॥ ५.२३ ॥ अतएव पूजि विष्णु अन्यदेव त्यजि । ताहातेइ अन्यदेव काजे काजे पूजि ॥ ५.२४ ॥ एइ विधि देवेर सम्मत चिरदिन । दुर्विपाके एइ विधि छाडे अर्वाचीन ॥ ५.२५ ॥ मायावाददोषे जीव कलि आगमने । बहुदेव पूजे विष्णुसामान्यदर्शने ॥ ५.२६ ॥ एक एक देव एक एक फल दाता । सर्व फल दाता विष्णु सकलेर पाता ॥ ५.२७ ॥ कामि जन यदि तत्त्व जानिबारे पारे । विष्णु पूजि फल पाय छाडे देवान्तरे ॥ ५.२८ ॥ गृहस्थ वैष्णवेर कर्तव्य विधान गृहस्थ हेया येइ विष्णुभक्त हय । सर्वकार्ये कृष्ण पूजे छाडिया संशय ॥ ५.२९ ॥ निषेकादि श्मशानान्त संस्कार यत । ताहाते पूजये कृष्ण वेद मन्त्र मत ॥ ५.३० ॥ विष्णु वैष्णवेर पूजा वेदेते विधान । देवपितृगणे कृष्ण निर्माल्य प्रदान ॥ ५.३१ ॥ मायावादिमते पितृश्राद्ध येइ करे । येवा अन्यदेव पूजे अपराधे मरे ॥ ५.३२ ॥ विष्णुतत्त्वे द्वैतबुद्धि नाम अपराध । सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध ॥ ५.३३ ॥ शिवादि देवता गणे पृथकीश्वर । मानिले नामापराध हय भयङ्कर ॥ ५.३४ ॥ विष्णुशक्ति परा शक्ति हैते देव यत । भिन्न शक्ति सिद्ध नय वेदेर सम्मत ॥ ५.३५ ॥ शिवब्रह्मागणपतिसूर्यदिक्पाल । कृष्णशक्तिबलेते ईश्वर चिरकाल ॥ ५.३६ ॥ अतएव परेश्वर एकमात्र जानि । आर सब देवे ताङ्र शक्तिमध्ये गणि ॥ ५.३७ ॥ अतएव सर्वकार्ये कर्म जड भाव । छाडिया गृहस्थ पाय भक्तिर सद्भाव ॥ ५.३८ ॥ कि रूप वैष्णव गार्हस्थ्य धर्म करिबेन् भक्तिर सद्भावे थाकि सत्क्रिया करणे । देवपितृगणे तुषे निर्माल्य अर्पणे ॥ ५.३९ ॥ बहु देवदेवी पूजा करिबे वर्जन । कृष्णभक्त बलि सबे करिबे तर्पण ॥ ५.४० ॥ श्रीकृष्ण वैष्णवार्चने सर्व फल पाय । नामे अपराध नहे सदा नाम गाय ॥ ५.४१ ॥ वर्णचतुष्टयेर जीवन यात्रा विधि जगते मानवगण वर्णधर्माचरि । करिबेक जीवनयात्रा धर्म पथ धरि ॥ ५.४२ ॥ अन्त्यजेर विधि सङ्कर अन्त्यज सबे त्यजि नीचधर्म । शूद्राचार करे सदा संसारेर कर्म ॥ ५.४३ ॥ सङ्कर अन्त्यज थाकिबेक शूद्राचारे । चातुर्वर्ण विना धर्म नाहिक संसारे ॥ ५.४४ ॥ वर्णधर्मेर द्वारा जीवनयात्रा करिया संसारि व्यक्ति भक्तिपथे भावार्जन करिबेन् चातुर्वर्ण वर्णधर्मे करिबे संसार । शुद्ध कृष्णभक्ति बले हबे सदाचार ॥ ५.४५ ॥ चातुर्वर्ण यद्यपि श्रीकृष्ण नाहि भजे । वर्णधर्माचारे थाकि रौरवेते मजे ॥ ५.४६ ॥ वर्ण विना गृहस्थेर नाहि आर धर्म । वर्ण धर्माचारे गृहस्थेर सब कर्म ॥ ५.४७ ॥ वर्णधर्मे ए संसार निर्वाह करिबे । यावदर्थ परिग्रहे श्रीकृष्ण भजिबे ॥ ५.४८ ॥ निसर्गतः विधिवाक्य ये पर्यन्त नर । वर्णधर्म स्वनिर्वाहे करिबे आदर ॥ ५.४९ ॥ भक्तियोगनामे एइ तत्त्वनिरूपण । भक्तियोगे भावोदय सिद्धान्तवचन ॥ ५.५० ॥ भावोदये विधिर प्रवृत्ति नाहि रय । भावोदित कार्ये देहयात्रा सिद्ध हय ॥ ५.५१ ॥ गृहिवैष्णवेर एइ अद्वयसाधन । श्रीविष्णु अद्वयतत्त्वे द्वैतनिवर्तन ॥ ५.५२ ॥ नामनामी ओ गुणगुणीर अभेदे विष्णुज्ञान शुद्ध हय आर एक कथा आछे द्वैतनिवर्तने । विष्णुनाम विष्णुरूप विष्णुगुणगणे ॥ ५.५३ ॥ विष्णु हैते पृथग्रूपे ना मानिबे कभु । अद्वय अखण्ड विष्णु चिन्मयत्वे विभु ॥ ५.५४ ॥ अज्ञानेते यदि हय द्वैत उपद्रव । नामाभास हय तार प्रेम असम्भव ॥ ५.५५ ॥ सद्गुरुकृपाय सेइ अनर्थ विनाश । भजिते भजिते शुद्धनामेर प्रकाश ॥ ५.५६ ॥ मायावादीर कुतर्क ओ अपराध मतवादज्ञाने द्वैत हैल प्रवर्तन । अपराध हय आर नहे निवर्तन ॥ ५.५७ ॥ मायावादी बले ब्रह्म हय परतत्त्व । निर्विशेष निर्विकार निराकार सत्त्व ॥ ५.५८ ॥ विष्णुरूप विष्णुनाम मायाय कल्पित । माया अन्तर्धाने विष्णु हन ब्रह्मगत ॥ ५.५९ ॥ ए सब कुतर्क मात्र सत्य शून्यवाद । परतत्त्वे सर्वशक्ति अभावप्रमाद ॥ ५.६० ॥ शक्तिमान् ब्रह्म येइ सेइ विष्णु हय । नामेर विवादमात्र वेदेर निर्णय ॥ ५.६१ ॥ विष्णु ओ ब्रह्मतत्त्वेर सम्बन्ध विष्णु परतत्त्व ताङ्र निर्विशेष धर्म । सविशेष धर्म सह हय एक मर्म ॥ ५.६२ ॥ विष्णुर अचिन्त्यशक्ति विरोधभञ्जन । अनायासे करि करे सौन्दर्य स्थापन ॥ ५.६३ ॥ जीवबुद्धि सहजेते अति अल्पतर । अचिन्त्यशक्तिर भाव ना करे गोचर ॥ ५.६४ ॥ निजबुद्ध्ये चाहे एक स्थापिते ईश्वर । खण्डज्ञाने पाय ब्रह्मतत्त्वेते अवर ॥ ५.६५ ॥ विष्णुर परम पद छाडि देवार्चित । ब्रह्मे बद्ध हय नाहि बुझे हिताहित ॥ ५.६६ ॥ चिन्मयस्वरूपज्ञान ये बुझिते जाने । विष्णु विष्णुनामगुण एक करि माने ॥ ५.६७ ॥ एइ त विशुद्ध ज्ञान श्रीकृष्णस्वरूप । सम्बन्ध बुद्धिते लभि भजे नामरूप ॥ ५.६८ ॥ शिव ओ विष्णुर कि रूपे अभेदबुद्धि करिबे जडनाम जडरूपगुणे येइ भेद । से भेद चित्तत्त्वे नाइ एइ त प्रभेद ॥ ५.६९ ॥ विष्णुतत्त्वे भेदज्ञान अनर्थ विकार । शिवेते विष्णुते भेद अति अविचार ॥ ५.७० ॥ भक्त ओ मायावादीर आचार ओ प्रवृत्ति भेद नामैकशरण येइ भक्ति महाजन । एकेश्वर कृष्णे भजि छाडे अन्य जन ॥ ५.७१ ॥ अन्यदेव अन्यशास्त्र निन्दा नाहि करे । कृष्णदास बलि अन्ये पूजे समादरे ॥ ५.७२ ॥ प्रतिदिन गृहिभक्त निर्माल्य अर्पणे । देव पितृ सर्व जीवे करेन तर्पणे ॥ ५.७३ ॥ यथा यथा अन्य देवे करेन दर्शन । कृष्णदास बलि ताङ्रे करेन वन्दन ॥ ५.७४ ॥ मायावादिगण यदि विष्णुपूजा करे । प्रसाद निर्माल्य भक्त नाहि लय डरे ॥ ५.७५ ॥ मायावादी हरिनामे अपराधी हय । ताहार प्रदत्त पूजा हरि नाहि लय ॥ ५.७६ ॥ अन्यदेवनिर्माल्य ग्रहणे अपराध । शुद्ध भक्ति साधने सर्वदा साधे बाध ॥ ५.७७ ॥ तबे यदि शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण पूजिया । अन्य देवे पूजा करे तत्प्रसाद दिया ॥ ५.७८ ॥ से प्रसाद ग्रहणेते नाहि अपराध । सेइ रूप देवार्चने नाहि भक्तिबाध ॥ ५.७९ ॥ शुद्धभक्त नाम अपराधी नाहि हय । नाम करिऽ प्रेम पाय नामे देय जय ॥ ५.८० ॥ एइ अपराधेर प्रतिकार प्रमादे यद्यपि हय अन्ये विष्णुज्ञान । तबे अनुतापे करि विष्णुतत्त्वध्यान ॥ ५.८१ ॥ श्रीविष्णु स्मरिया करि अपराध क्षय । यत्ने देखि आर ना से अपराध हय ॥ ५.८२ ॥ पूर्व दोष क्षमा शील भक्तेर बान्धव । दयार सागर कृष्ण क्षमार अर्णव ॥ ५.८३ ॥ बहु देव सेवि सङ्ग करिब वर्जन । एकेश्वर वैष्णवेर करिब पूजन ॥ ५.८४ ॥ हरिदास पदे भक्तिविनोद ये जन । हरिनामचिन्तामणि ताहार जीवन ॥ ५.८५ ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ देवान्तरे स्वातन्त्र्यज्ञानआपराध नाम पञ्चमः परिच्छेदः । (६) षष्ठ परिच्छेद गुर्व्अवज्ञा गुरोरवज्ञा पञ्चतत्त्व जय जय श्रीराधामाधव । जय नवद्वीप व्रज यमुना वैष्णव ॥ ६.१ ॥ हरिदास बले प्रभु करि निवेदन । तृतीयापराध नामे ये रूपे घटन ॥ ६.२ ॥ विस्तारि बलिब आमि तोमारि आज्ञाय । येइ सब अपराध गुरु अवज्ञाय ॥ ६.३ ॥ बहु योनि भ्रमि मानवशरीर दुर्लभ शुभद अति । तथापि अनित्य पाइलेक येइ यावत्जीवने स्थिति ॥ ६.४ ॥ परम मङ्गल लभिबारे तरे यदि ना यतन करे । पुनराय भवे अनित्य शरीर लभिया आबार मरे ॥ ६.५ ॥ सुबोध ये हय दुर्लभ नृदेह लभिया भव संसारे । संसारी जीव अवश्य सद्गुरु आश्रय करिबे गुरु कर्णधार समाश्रय करि कृष्ण आनुकूल्ये तरे ॥ ६.६ ॥ शान्त कृष्णभक्त लक्षण ये गुरु सदैन्य वचने ताङ्रे । सन्तोष करिया कृष्णदीक्सा लय याय संसारेर पारे ॥ ६.७ ॥ सहजे जीवेर आछे कृष्णे मति वृथा तर्के ताहा याय । वितर्क छाडिया सुमति आश्रये गुरु हते मन्त्र पाय ॥ ६.८ ॥ गृही जीवगण वर्णाश्रमे थाकि सद्गुरु आश्रय करे । ब्राह्मणादि उच्चवर्णे सत्पात्र थाकिले तिनि हैबार योग्य ब्राह्मण आचार्य सर्ववर्णे हय यदि कृष्ण भक्ति धरे ॥ ६.९ ॥ ब्राह्मण कुलेते सुपात्र अभावे अन्य कुले दीक्षा पाय । उच्च वर्ण गुरु गृहीर उचित गुरु शिष्य परीक्षाय ॥ ६.१० ॥ वर्णविचार अपेक्षा सुपात्रेर विचार अधिक श्रेयः कृष्ण तत्त्व वेत्ता प्रकृत ये हय से हेते पारे गुरु । किबा विप्र शूद्र कि गृही सन्न्यासी गुरु हन कल्पतरु ॥ ६.११ ॥ वर्णेर मर्यादा पात्रेर विचारे परमार्थे लघु अति । सुपात्र मिलन प्रयोजन सदा यदि चाइ शुद्धा रति ॥ ६.१२ ॥ सुपात्रेर प्राप्ति मूल प्रयोजन पवित्र सुवर्ण हेन । ताहे उच्च वर्ण लभिले संयोग सोहागा सुवर्णे येन ॥ ६.१३ ॥ गृहत्यागी अगृहिगुर्वाश्रय करिते पारेन् ये कोन कारणे सेइ गृहि धर्म छाडि अन्याश्रम लय । ताहे परमार्थ ना पाइया शेषे साधु गुरु अन्वेषय ॥ ६.१४ ॥ ताहार पक्षेते अगृही आचार्य प्रशस्त सकल मते । ताङ्र दीक्षा शिक्षा पाइया से जन भासे नामरसामृते ॥ ६.१५ ॥ गृहिभक्ति गृहत्याग करिले ओ पूर्वगुरु त्याग करिते हय ना गृही भक्तजने विराग लभिले छाडये संसार विधि । तबु पूर्वगुरु चरण आश्रय करिबे जीवनावधि ॥ ६.१६ ॥ गृहि जन मध्ये गृहि गुरु शस्त यदि शुद्ध भक्त हन । नतुवा अगृही सुयोग्य हेले गुरुयोग्य सर्वक्षण ॥ ६.१७ ॥ सद्गुरु पाइया भजिए भजिते भावेर उदय यबे । संसार विरक्ति संसार छाडिया वैरागी हेबे तबे ॥ ६.१८ ॥ यिनि वैराग्य आश्रये लेबेन तिनि वैरागी गुरु करिबेन् वैराग्य आश्रम ग्रहणेते त्यागी पुरुष हेबे गुरु । ताङ्हार चरणे शिखिबे विराग गुरु शिक्षा कल्प तरु ॥ ६.१९ ॥ दीक्षा ओ शिक्षा गुरु उभयके इ समान सम्मान करा आवश्यक दीक्षा शिक्षा भेदे गुरु दुऽ प्रकार उभये समान मान । अर्पिबे सुजन परमार्थ धन अनायासे यदि चान् ॥ ६.२० ॥ कृष्णनाम मन्त्र देन दीक्षा गुरु शिक्षा गुरु तत्त्व दाता । वैष्णव सकल शिक्षा गुरु हन सर्व शुभ जनयिता ॥ ६.२१ ॥ सम्प्रदायेर आदिगुरुर शिक्षा अवलम्बन करिया आचरण करिबे साधु सम्प्रदाये आचार्य सकल शिक्षा गुरु प्रतिष्ठित । आद्याचार्य यिनि गुरु शिरोमणि पूजि ताङ्रे यथोचित ॥ ६.२२ ॥ ताङ्र सुसिद्धान्त अनुगत हये ना मानिब अन्य शिक्षा । ताङ्हार आदेश पालिब यतने ना लेब अन्य दीक्षा ॥ ६.२३ ॥ सम्प्रदाय गुरु वरण करा कर्तव्य सम्प्रदाय गुरुगणे शिक्षा गुरु जानि । अन्यमत पण्डितेर शिक्षा नाहि मानि ॥ ६.२४ ॥ सेइ मते सुशिक्षित साधु सुचरित । दीक्षा गुरु योग्य सदा जाने सुपण्डित ॥ ६.२५ ॥ मायावादीर निकट कृष्णमन्त्र लेले परमार्थ हय ना मायावादिमते थाके कृष्ण मन्त्र लय । तार परमार्थ लाभ कभु नाहि हय ॥ ६.२६ ॥ शुद्धभक्त व्यतीत अन्यके गुरु करिबे ना ये अन्याय शिखे येइ शिक्षा देय आर । उभये नरके याय ना पाय उद्धार ॥ ६.२७ ॥ शुद्ध भक्ति छाडि यिनि शिखिलेन बाद । ताङ्हार जीवन मात्र वाद विसंवाद ॥ ६.२८ ॥ से केमने गुरु हबे उद्धारिबे जीवे । आपनि असिद्ध अन्ये किबा शुभ दिबे ॥ ६.२९ ॥ अतएव शुद्ध भक्त ये से केने नय । उपयुक्त गुरु हय सर्वशास्ते कय ॥ ६.३० ॥ गुरु तत्त्व दीक्षा गुरु शिक्षा गुरु दुङ्हे कृष्ण दास । दुङ्हे व्रज जन कृष्ण शक्तिर प्रकाश ॥ ६.३१ ॥ गुरुके सामान्य जीव ना जानिबे कभु । गुरु कृष्ण शक्ति कृष्णप्रेष्ठ नित्य प्रभु ॥ ६.३२ ॥ एइ बुद्धि सह सदा गुरु भक्ति करे । सेइ गुरुभक्ति बले संसारेते तरे ॥ ६.३३ ॥ गुरु पूजा अग्रे गुरु पूजा परे श्री कृष्ण पूजन । गुरुदेवे श्रीकृष्ण प्रसाद समर्पण ॥ ६.३४ ॥ गुरु आज्ञा लये कृष्ण पूजिबे यतने । श्री गुरु स्मरिया कृष्ण बलिबे वदने ॥ ६.३५ ॥ गुरुते कि रूपे श्रद्धा करा उचित गुरुते अवज्ञा यार तार अपराध । सेइ अपराधे तार हय भक्ति बाध ॥ ६.३६ ॥ गुरु कृष्ण वैष्णवेते सम भक्ति करि । नामाश्रये शुद्ध भक्त शीघ्र याय तरि ॥ ६.३७ ॥ गुरुते अचला श्रद्धा करे येइ जन । शुद्ध नाम बले सेइ पाय प्रेम धन ॥ ६.३८ ॥ कोन् स्थाने गुरु त्याग करिते हेबे तबे यदि ए रूप घटना कभु हय । असत्सङ्गे गुरुर योग्यता हय क्षय ॥ ६.३९ ॥ प्रथमे छिलेन तिनि सद्गुरु प्रधान । परे नाम अपराधे हञा हत ज्ञान ॥ ६.४० ॥ वैष्णवे विद्वेष करि छाडे नाम रस । क्रमे क्रमे हन अर्थ कामिनीर वश ॥ ६.४१ ॥ सेइ गुरु छाडि शिष्य श्रीकृष्णकृपाय । सद्गुरु लभिया पुनः शुद्ध नाम गाय ॥ ६.४२ ॥ गुरु शिष्य सम्बन्धेर पूर्वेई परस्परेर परीक्षा अयोग्य शिष्येरे गुरु करिबेन् दण्ड । भजिया अयोग्य गुरु शिष्य हय पण्ड ॥ ६.४३ ॥ दुङ्हेर योग्यता यत दिन स्थिर रय । परस्पर सम्बन्ध कखन त्यज्य नय ॥ ६.४४ ॥ शुद्ध गुरु परीक्षा करिया वरण करिबे सद्गुरुर प्रति येइ अवज्ञा आचरे । से पापिष्ठ अपराधी सर्वत्र संसारे ॥ ६.४५ ॥ अतएव प्रथमे विशेष यत्न करि । शुद्ध भक्ते लेबेन गुरुरूपे वरि ॥ ६.४६ ॥ गुरु त्याग क्लेश येन कभु नाहि घटे । ए रूप चिन्तिले कभु ना पडे सङ्कटे ॥ ६.४७ ॥ गुरु यथा भक्तिहीन शिष्य तार प्राय । अतएव शुद्ध गुरु लबे परीक्षाय ॥ ६.४८ ॥ सद्गुरु अवज्ञा अपराध भयङ्कर । एइ अपराधे नष्ट हय देव नर ॥ ६.४९ ॥ गुरु सेवार प्रक्रिया गुरु शय्यासन आर पादुकादि यान । पाद पीठ स्नानोदक छायार लङ्घन ॥ ६.५० ॥ गुरुर अग्रेते अन्य पूजा द्वैत ज्ञान । दीक्षा व्याख्या प्रभुत्वादि करिबे वन्दन ॥ ६.५१ ॥ यथा यथा गुरुर पाइबे दरशन । दण्डवत्पडि भूमे करिबे वन्दन ॥ ६.५२ ॥ गुरु नाम भक्तिते करिबे उच्चारण । गुरु आज्ञा हेला ना करिबे कदाचन ॥ ६.५३ ॥ गुरुर प्रसाद सेवा अवश्य करिबे । गुरुर अप्रिय वाक्य कभु ना कहिबे ॥ ६.५४ ॥ गुरुर चरणे दैन्ये लेबे शरण । करिबे गुरुर सदा प्रिय आचरण ॥ ६.५५ ॥ ए रूप आचारे कृष्ण नाम सङ्कीर्तने । सर्व सिद्धि हय प्रभो बले श्रुति गणे ॥ ६.५६ ॥ नाम गुरु प्रति यदि अवज्ञा घटये । दुष्ट सङ्गे दुष्ट शास्त्र मत समाश्रये ॥ ६.५७ ॥ तबे सेइ सङ्ग सेइ शास्त्र दूर करि । विलाप करिब सेइ गुरु पदे धरि ॥ ६.५८ ॥ कृपा करि गुरुदेव हेबे सदय । नामे प्रेम दिबे से वैष्णव दयामय ॥ ६.५९ ॥ हरिदास पद रेणु भरसा याहार । नाम चिन्तामणि गाय तृणाधिक छार ॥ ६.६० ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ गुर्व्अवज्ञाविचारो नाम षष्ठः परिच्छेदः । (७) सप्तम परिच्छेद श्रुतिशास्त्रनिन्दनम् जय जय गदाइ गौराङ्ग नित्यानन्द । जय सीतापति जय गौरभक्तवृन्द ॥ ७.१ ॥ हरिदास बले प्रभु चतुर्थापराध । श्रुतिशास्त्रविनिन्दन भक्तिरसबाध ॥ ७.२ ॥ आम्नाये एकमात्र प्रमाण श्रुतिशास्त्र वेद उपनिषत्पुराण । कृष्णनिश्वसित हय सर्वत्र प्रमाण ॥ ७.३ ॥ विशेषतः अप्राकृततत्त्वे ज्ञान यत । सकलि आम्नाय सिद्ध ताहे हे रत ॥ ७.४ ॥ जडातीत वस्तु इन्द्रियेर अगोचर । कृष्णकृपा विना ताहा ना हय गोचर ॥ ७.५ ॥ करणापटव भ्रम विप्रलिप्सा आर । प्रमाद सर्वत्र नर ज्ञाने दोष एइ चार ॥ ७.६ ॥ सेइ सब दोष शून्य वेद चतुष्टय । वेद विना परमार्थे गति नाहि हय ॥ ७.७ ॥ माया बद्ध जीवे कृष्ण बहु कृपा करि । वेद पुराणादि दिल आर्ष ज्ञान धरि ॥ ७.८ ॥ आम्नाय हैते दश मूल शिक्षा प्रमेय नयटा सेइ श्रुति शास्त्रे जानि कर्म ज्ञान छार । निर्मल भक्तिते मात्र पाइ सर्व सार ॥ ७.९ ॥ माया मूढ जीवे कर्म ज्ञाने शुद्ध करि । शुद्ध भक्ति अधिकार शिखाइला हरि ॥ ७.१० ॥ प्रमाण से वेद वाक्य नयटी प्रमेय । शिखाय सम्बन्ध प्रयोजन अभिधेय ॥ ७.११ ॥ एइ दश मूल सार अविद्या विनाश । करिया जीवेर करे सुविद्या प्रकाश ॥ ७.१२ ॥ १. हरि एक पर तत्त्व, २. तिनि सर्व शक्तिमान्, ३. तिनि रस मूर्ति प्रथमे शिखाय पर तत्त्व एक हरि । श्याम सर्वशक्तिमान् रसमूर्तिधारी ॥ ७.१३ ॥ जीवेर परमानन्द करेन विधान । संव्योम धामेते तार नित्य अधिष्ठान ॥ ७.१४ ॥ ए तिन प्रमेय हय श्रीकृष्णविसये । वेदशास्त्र शिक्षा देन जीवेर हृदये ॥ ७.१५ ॥ ४. जीवतत्त्व द्वितीये शिखाय विभिन्नांश जीव तत्त्व । अनन्त सङ्ख्यक चित्परमाणु सत्त्व ॥ ७.१६ ॥ ५. नित्यबद्ध ओ ६. नित्य मुक्त भेदे जीव दुइ प्रकार नित्य बद्ध नित्य मुक्त भेदे जीव द्विप्रकार । संव्योम ब्रह्माण्ड भरि संस्थिति ताहार ॥ ७.१७ ॥ बद्ध जीव बद्ध जीव माया भजि कृष्ण बहिर्मुख । अनन्त ब्रह्माण्डे भोग करे दुःख सुख ॥ ७.१८ ॥ मुक्त जीव नित्य मुक्त कृष्ण भजि कृष्ण पारिषद । पर व्योमे भोग करे प्रेमेर सम्पद ॥ ७.१९ ॥ तिनटी प्रमेय एइ जीवेर विषये । श्रुति शास्त्र शिक्षा देन कृष्ण दासी हये ॥ ७.२० ॥ ७. अचिन्त्य भेदाभेद सम्बन्ध चिद्व्यापार आर यत जडेर व्यापार । सकलि अचिन्त्य भेदाभेद प्रकार ॥ ७.२१ ॥ जीव जड सर्व वस्तु कृष्ण शक्ति मय । अविचिन्त्य भेदाभेद श्रुति शास्त्रे कय ॥ ७.२२ ॥ एइ ज्ञाने जीव जाने आमि कृष्ण दास । कृष्ण मोर नित्य प्रभु चित्सूर्य प्रकाश ॥ ७.२३ ॥ शक्ति परिणाम मात्र वेद शास्त्र बले । विवर्तादि दुष्टमते वेद निन्दे छले ॥ ७.२४ ॥ सातटी प्रमेय सम्बन्ध ज्ञान एइ त सम्बन्ध ज्ञान सातटी प्रमेय । श्रुतिशास्त्र शिक्षा देन अति उपादेय ॥ ७.२५ ॥ वेद पुनः शिक्षा देन अभिधेय सार । नव विध कृष्ण भक्ति विधि राग आर ॥ ७.२६ ॥ ८. अभिधेय नव विध भक्ति श्रवण कीर्तन स्मृति पूजन वन्दन । परिचर्या दास्य सख्य आत्मनिवेदन ॥ ७.२७ ॥ भक्तिर प्रकार मध्ये नाम सर्वसार । प्रणवमाहात्म्य वेद करेन प्रचार ॥ ७.२८ ॥ ९. प्रयोजन कृष्ण प्रेम शुद्ध भक्ति समाश्रय करिया मानव । कृष्ण कृपा बले पाय प्रेमेर वैभव ॥ ७.२९ ॥ एइ श्रुति शिक्षा निन्दा अपराध ए नव प्रमेय श्रुति करेन प्रमाण । श्रुति तत्त्वाभिज्ञ गुरु करेन सन्धान ॥ ७.३० ॥ ए हेन श्रुतिर येइ करे विनिन्दन । नाम अपराधी सेइ नराधम जन ॥ ७.३१ ॥ वेद विरुद्ध वाद समूह जैमिनि कपिल नग्न नास्तिक सुगत । गौतम ए छय जन हेतु वादे रत ॥ ७.३२ ॥ वेद माने मुखे तबु ईश नाहि माने । कर्म काण्ड श्रेष्ठ बलि जैमिन् बाखाने ॥ ७.३३ ॥ ईश्वर असिद्ध कपिलेर कल्पनाय । तबु योग माने अर्थ बुझा नाहि याय ॥ ७.३४ ॥ नग्न से तामस तत्त्व करय विस्तार । वेदेर विरुद्ध धर्म करये प्रचार ॥ ७.३५ ॥ नास्तिक चार्वाक कभु वेद नाहि माने । सुगत बौद्धेरा एक प्रकार बाखाने ॥ ७.३६ ॥ गौतम न्यायेर कर्ता ईश्वर ना भजे । तार हेतु वाद मते नर मात्र मजे ॥ ७.३७ ॥ एइ सब मतवाद द्वारा श्रुतिनिन्दा हय एइ सब दुष्ट मते श्रुतिर निन्दन । कभु स्पष्ट कभु गुप्त बुझे विज्ञ जन ॥ ७.३८ ॥ एइ सब मते थाकि अपराधी हय । अतएव एइ सबे त्यजिबे निश्चय ॥ ७.३९ ॥ मायावादी अति दुष्ट मत वेद विरुद्ध एइ सब कुमत छाडि आर मायावाद । शुद्ध भक्ति अनुभवि हय निर्विवाद ॥ ७.४० ॥ मायावाद असत्शास्त्र गुप्त बौद्ध मत । वेदार्थ विकृति कलि कालेते सम्मत ॥ ७.४१ ॥ उमापति ब्राह्मण रूपेते प्रकाशिल । तोमार आज्ञाय तेङ्ह आचार्य हेल ॥ ७.४२ ॥ जैमिनि ये रूप मुखे वेद मात्र माने । श्रुतिर विकृत अर्थ जगते बाखाने ॥ ७.४३ ॥ मायावादी गुरु सेइ रूप बौद्ध धर्म । वेद वाक्ये स्थापि आच्छादिल भक्ति मर्म ॥ ७.४४ ॥ एइ सब मतवादे भक्ति दूरे याय । श्रीकृष्णनामेते जीव अपराध पाय ॥ ७.४५ ॥ श्रुतिविचारे शुद्ध प्रक्रिया श्रुतिर अभिधा वृत्ति करि संयोजन । शुद्ध भक्ति जीव पाय प्रेम धन ॥ ७.४६ ॥ श्रुतिते लक्षणा करे अयथा प्रकारे । नित्य सत्य दूरे याय अपराधे मरे ॥ ७.४७ ॥ सर्व वेद सम्मत प्रणव कृष्ण नाम । सेइ नामे जीव सब पाय नित्य धाम ॥ ७.४८ ॥ प्रणव से महावाक्य हय कृष्ण नाम । ताहाते इ श्रीभक्तेर सतत विश्राम ॥ ७.४९ ॥ वेद बले नाम चित्स्वरूप जगते । नामेर आभासे सिद्ध हय सर्व मते ॥ ७.५० ॥ वेद केवल शुद्ध नाम भजन शिक्षा देन एइ सब वेद शिक्षा अभागा ना माने । नामे अपराध करे वेदेर निन्दने ॥ ७.५१ ॥ शुद्ध नाम परायण येइ महाजन । वेदाश्रये पाय नाम रस प्रेम धन ॥ ७.५२ ॥ सर्व वेद बले गाओ हरिनाम सार । पाइबे परमा प्रीति आनन्द अपार ॥ ७.५३ ॥ वेद पुनः बले यत मुक्त महाजन । परव्योमे सदा करे नाम सङ्कीर्तन ॥ ७.५४ ॥ तामसतन्त्र शिक्षा वेद विरुद्ध कलि युगे महा जन माया शक्ति भजे । चिदात्मा पुरुष कृष्ण नाम रस त्याजे ॥ ७.५५ ॥ तामसिक तन्त्र धरि श्रुति निन्दा करे । मद्यमांसे प्रीति करि अधर्मेते मरे ॥ ७.५६ ॥ से सब निन्दुक नाहि पाय कृष्ण नाम । कभु नाहि पाय कृष्णेर वृन्दावन धाम ॥ ७.५७ ॥ माया देवीर निष्कपट कृपे प्रयोजन माया देवी से सब पाषण्डे अधोगति । दिया नामामृत आर नाहि देन मति ॥ ७.५८ ॥ तबे यदि साधु सेवाय तुष्ट हन माया । अकपटे देन तबे कृष्ण पद छाया ॥ ७.५९ ॥ माया कृष्ण दासी बहिर्मुख जीवे दण्डे । माया पूजिले ओ शुभ नाहि पाय भण्डे ॥ ७.६० ॥ कृष्ण नाम करे येइ माया देवी तारे । निष्कपटे कृपा करि लय भव पारे ॥ ७.६१ ॥ अतएव श्रुतिनिन्दा अपराध त्यजि । अहरहः नाम सङ्कीर्तन रसे मजि ॥ ७.६२ ॥ तद्अपराधेर प्रतिकार प्रमादे यद्यपि हय से श्रुतिनिन्दन । अनुतापे करि पुनः से श्रुति वन्दन ॥ ७.६३ ॥ कुसम तुलसी दिया सेइ श्रुति गणे । भागवत सह सदा पूजिब यतने ॥ ७.६४ ॥ भागवत श्रुति सार कृष्ण अवतार । अवश्य करिबे मोरे करुणा अपार ॥ ७.६५ ॥ हरिदास पद रजः भरसा याहार । नामचिन्तामणि हार गलाय ताहार ॥ ७.६६ ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ श्रुतिनिन्दा अपराध विचारो नाम सप्तमः परिच्छेदः । (८) अष्टम परिच्छेद तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम् जय गौर गदाधर श्रीराधामाधव । जय गौरलीलास्थली जाह्नवी वैष्णव ॥ ८.१ ॥ हरि नामे अर्थ वाद कल्पना चिन्तन । पञ्चमापराध प्रभो श्री शचीनन्दन ॥ ८.२ ॥ नाम महिमा स्मृति कहे हेलाय श्रद्धाय नाम लय । कृष्ण तारे कृपा करि हयेन सदय ॥ ८.३ ॥ नामेर सदृश ज्ञान नाहिक निर्मल । नामेर सदृश व्रत नाहिक प्रबल ॥ ८.४ ॥ नामेर सदृश ध्यान नाहि ए जगते । नामेर सदृश फल नाहि कोन मते ॥ ८.५ ॥ नामेर सदृश त्याग कोन रूपे नय । नामेर सदृश सम कभु नाहि हय ॥ ८.६ ॥ नामेर सदृश पुण्य नाहि ए संसारे । नामेर सदृश गति ना देखि विचारे ॥ ८.७ ॥ नामे परम मुक्ति नाम उच्च गति । नामे परम शान्ति नाम उच्च स्थिति ॥ ८.८ ॥ नामे परम भक्ति नाम शुद्धा मति । नामे परम प्रीति नाम परा स्मृति ॥ ८.९ ॥ नामे कारण तत्त्व नाम सर्व प्रभु । परम आराध्य नाम गुरुरूपे विभु ॥ ८.१० ॥ कृष्णनामेर सर्वोत्तमता सहस्र विष्णु नामेर तुल्य हय एक राम नाम । तिन राम नाम तुल्य एक कृष्ण नाम ॥ ८.११ ॥ नामेर अर्थ वाद नरक गमन अवश्य घटे श्रुति गण नामेर माहात्म्य सदा गाय । नामेर चित्तत्त्व बलि जगते जानाय ॥ ८.१२ ॥ श्रुति स्मृति प्रदर्शित नामेर ये फल । ताहे अर्थ वाद करे पाषण्ड प्रबल ॥ ८.१३ ॥ हरिनामे अर्थ वाद ये अधम करे । से पापिष्ठ नरकेते पचिऽ पचिऽ मरे ॥ ८.१४ ॥ ये बले नामेर फलश्रुति सत्य नय । नामे रुचि दिते मात्र तत फल कय ॥ ८.१५ ॥ शास्त्रेर तात्पर्य आर जीव हिताहित । से अधम नाहि जाने बुझे विपरीत ॥ ८.१६ ॥ नामेर फल सत्य । ताहाते अर्थ वादेर प्रयोजन नाइ कर्म काण्ड आछे त कैतव स्वार्थ ज्ञान । भक्ति तत्त्वे नामे ताहा नहे विद्यमान ॥ ८.१७ ॥ कर्म काण्ड फल श्रुति रोचनार्थ जानि । भक्ति तत्त्वे फल श्रुति नित्य सत्य मानि ॥ ८.१८ ॥ नाम तत्त्वे शाठ्य नाहि पाय कभु स्थान । निजेर नाहिक स्वार्थ नाम करि दान ॥ ८.१९ ॥ कर्मफलेर अर्थवाद अपरित्याज्य नाम दान श्रद्दावाने येइ जन करे । कृष्ण दास्य करे सेइ स्वार्थ परिहारे ॥ ८.२० ॥ कर्म कराइले याजकेर अर्थ लाभ । अतएव ताहे कैतवेर त प्रभाव ॥ ८.२१ ॥ वेद स्मृति नाम फल अनन्त बाखाने । स्वार्थ बुद्धि शून्य से ये ताहा नाहि माने ॥ ८.२२ ॥ कर्म सब शुभाशुभ जडेर आश्रये । जडमयफल याचे यजमान चये ॥ ८.२३ ॥ कर्म फल दूरे फेलिऽ येबा करे कर्म । हृदय विशुद्ध तार हय एइ मर्म ॥ ८.२४ ॥ विशुद्ध हृदये आत्म रति सुनिर्मल । उदय हेया हय क्रमशः प्रबल ॥ ८.२५ ॥ नाम चिन्मय, ताहाते अर्थवाद हेते पारे ना नाम सेइ आत्मरति निजे उपस्थित । साधन कालेते साध्य वस्तुर विहित ॥ ८.२६ ॥ कर्मेर चरम फल नामरस हय । साधुरूपे अनुष्ठित कर्मेते निश्चय ॥ ८.२७ ॥ अतएव चौद्द लोक भ्रमिया ब्राह्मण । येइ फल नाहि पान नाम ताहा हन ॥ ८.२८ ॥ नाम फल सर्वोपरि अवश्य हेबे । कर्मी ज्ञानी हिंसा करिऽ नामे कि करिबे ॥ ८.२९ ॥ नामाभासे सर्व कर्म ओ ब्रह्मज्ञानेर फल हेया थाके सर्वकर्मफल नामाभासे लब्ध हय । सर्वज्ञानफल नामाभासेते मिलय ॥ ८.३० ॥ आभासे मिलिल यदि एत उच्च फल । नाम वस्तु ततोऽधिक प्रदाने प्रबल ॥ ८.३१ ॥ अतएव शास्त्रे यत नाम फल गाय । शुद्ध नामाश्रित जन निश्चय ता पाय ॥ ८.३२ ॥ नाम फले याहार सन्देह, ताहार मङ्गल नाइ इहाते सन्देह यार से अधम जन । नाम अपराधे तार अवश्य पतन ॥ ८.३३ ॥ वेदे रामायणे आर भारते पुराणे । आदि अन्त्ये मध्ये हरिनामेरे बाखाने ॥ ८.३४ ॥ नाम फल श्रुति वाक्य अनादि निश्चल । ताहे अर्थ वाद कल्पनार किबा फल ॥ ८.३५ ॥ कर्मज्ञानेर शक्ति अपेक्षा नामे अनन्तगुण शक्ति आछे नाम नामी एक नामे दिया सर्व शक्ति । सर्वोपरि करियाछ तव नाम शक्ति ॥ ८.३६ ॥ तुमि त स्वतन्त्र तत्त्व सर्व शक्तिमान् । तोमार इच्छाय यत विधिर विधान ॥ ८.३७ ॥ कर्मके करेछ जड आर ब्रह्म ज्ञाने । दियाछ निर्वाण शक्ति स्वतन्त्र विधाने ॥ ८.३८ ॥ इच्छामय तुमि प्रभु स्वीय नामाक्षरे । अर्पियाछ सब शक्ति आर के कि करे ॥ ८.३९ ॥ अतएव तव नाम सर्व शक्तिमान् । नामे अर्थवाद नाहि करिबे विद्वान् ॥ ८.४० ॥ तद्अपराधेर प्रतिकार नामे अर्थवाद अपराध घटे यदि । दन्ते तृण धरि याइ वैष्णवसंसदि ॥ ८.४१ ॥ अपराध जानाइया वैष्णवचरणे । क्षमा मागि काकुति करिया ऋजुमने ॥ ८.४२ ॥ नामेर महिमा ज्ञाता भागवत जन । क्षमा करि कृपा करि दिबे आलिङ्गन ॥ ८.४३ ॥ नामे अर्थ वाद आर कल्पनमनन । कभु नाहि हबे चित्ते माया विडम्बन ॥ ८.४४ ॥ अर्थवादकारी सह हैले सम्भाषण । सचेले जाह्नवीजले करिब मज्जन ॥ ८.४५ ॥ कृष्ण प्रिया वंशी कृपा भरसा याहार । हरिनाम चिन्तामणि तार अलङ्कार ॥ ८.४६ ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ अर्थवादापराधविचारो नाम अष्टमः परिच्छेदः । (९) नवम परिच्छेद नामबले पापबुद्धि नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर् न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन । जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण ॥ ९.१ ॥ नामग्रहणे समस्त अनर्थ दूर हय हरिदास बले नाम शुद्ध सत्त्व मय । भाग्यवान् जीव करे नामेर आश्रय ॥ ९.२ ॥ अति शीघ्र ताहार अनर्थ दूरे याय । हृदयदौर्बल्य आर स्थान नाहि पाय ॥ ९.३ ॥ नामे दृढ हैले नाहि हय पापे मति । पूर्व पाप दग्ध हय चित्त शुद्ध अति ॥ ९.४ ॥ पाप आर पापबीज पापेर वासना । अविद्या ताहार मूल ए तिन यन्त्रना ॥ ९.५ ॥ सर्व जीवे दया आसि हेबे उदय । जीवेर मङ्गल चेष्टा सतत करय ॥ ९.६ ॥ जीवेर सन्ताप कभु सहिते ना पारे । याहे परताप याय तार चेष्टा करे ॥ ९.७ ॥ विषयपिपासा अति तुच्छ मने हय । इन्द्रियलालसा तार चित्ते नाहि रय ॥ ९.८ ॥ कनककामिनी चेष्टा प्रति घृणा करे । यथा धर्म लाभे तुष्ट थाकि प्राण धरे ॥ ९.९ ॥ भक्ति अनुकूल सब करये स्वीकार । भक्ति प्रतिकूल नाहि करे अङ्गीकार ॥ ९.१० ॥ कृष्ण रक्षा कर्ता एक मात्र बलि जाने । जीवने पालनकर्ता कृष्ण इहा माने ॥ ९.११ ॥ अहं मम बुद्ध्य्आसक्ति ना राखे हृदये । दीनभावे नाम लय सकल समये ॥ ९.१२ ॥ स्वभावतः यार एइ रूप नामाश्रय । पापे मति पापाचार ताहार कि हय ॥ ९.१३ ॥ पूर्वपाप ओ पापगन्ध शीघ्र दूर हय पूर्व दृष्टभाव तार क्रमे हय क्षीण । पवित्र स्वभाव शीघ्र हेबे प्रवीण ॥ ९.१४ ॥ एइ सन्धि काले पूर्व पापेर सम्बन्ध । थाकिते ओ पारे किछु दिन पाप गन्ध ॥ ९.१५ ॥ नामेर संसर्गे यत सुमति उदय । हये सेइ पाप गन्ध शीघ्र करे क्षय ॥ ९.१६ ॥ प्रतिज्ञा करेछ नाथ अर्जुन निकटे । मोर भक्त कभु नाहि पडिबे सङ्कटे ॥ ९.१७ ॥ सङ्कट समये आमि हेब सहाय । अतएव पाप याय तोमार कृपाय ॥ ९.१८ ॥ ज्ञान मार्गी कष्टे पाप करिया दमन । तवाश्रय छाडि शीघ्र हय त पतन ॥ ९.१९ ॥ तव पदाश्रय यार सेइ महाजन । विघ्न ना पाइबे कभु सिद्धान्त वचन ॥ ९.२० ॥ प्रमादे पाप उपस्थित हेले ताहार प्रायश्चित्तेर प्रयोजन नाइ यदि कभु प्रमादे घटय कोन पाप । भक्त तबु नाहि सहे प्रायश्चित्त ताप ॥ ९.२१ ॥ से पाप क्षणिक नाहि पाय अवस्थिति । नाम रसे भेसे याय ना देय दुर्गति ॥ ९.२२ ॥ नामबले पापाचरणकारीर परिणाम किन्तु यदि कोन जन नामे करि बल । आचरे नूतन पाप, से जन चञ्चल ॥ ९.२३ ॥ से केवल कपटता करिया आश्रय । नामापराध पाय शोकमृतिभय ॥ ९.२४ ॥ प्रमाद ओ विचारित कर्मेर भेद प्रमाद घटना आर विचारित कर्मे । सम्पूर्ण प्रभेद आछे भक्तिशास्त्र मर्मे ॥ ९.२५ ॥ नामाश्रयीर पाप करा दूरे थाकुक, पापे मति हेले इ नामापराध हय संसारी मानव येबा आचरये पाप । प्रायश्चित्त आछे तार आर अनुताप ॥ ९.२६ ॥ किन्तु नामबले यदि पापे करे मति । प्रायश्चित्त नाहि तार बडे दुर्गति ॥ ९.२७ ॥ बहु यम यातनादि पाइले ओ तार । सेइ अपराध हेते ना हय उद्धार ॥ ९.२८ ॥ पाप मतिमात्रे हय एरूप यन्त्रना । पापाचारे यत दोषे तार कि गणना ॥ ९.२९ ॥ प्रवञ्चक शठेर नामभरसाय पापक्रिया मर्कटवैराग्य मात्र शास्त्रे शुनियाछे नाम यत पाप हरे । कोटि जन्मे महा पापी करिते ना पारे ॥ ९.३० ॥ पञ्च विध पाप महा पातक अवधि । नामाभासे याय शास्त्र गाय निरवधि ॥ ९.३१ ॥ सेइ त भरसा करि प्रवञ्चक जन । शठता करिया नाम करये ग्रहण ॥ ९.३२ ॥ कष्टेर संसार छाडि वैरागीर वेशे । कनक कामिनी आशे फिरे देशे देशे ॥ ९.३३ ॥ तुमि त बलेछ प्रभु मर्कट वैरागी । कामिनी सम्भाषि फिरे धर्म गृह त्यागी ॥ ९.३४ ॥ निष्कपट नामाश्रय ना करिले एइ अपराध अनिर्वार्य वैराग्येर छले केह गृहे काटे काल । सम्भाष्य ना हय सब विश्वेर जञ्जाल ॥ ९.३५ ॥ गृहे थाकु वने याउ ताते नाहि दोष । निष्पापे करुक्नाम पाइया सन्तोष ॥ ९.३६ ॥ नाम बले पाप मति महा अपराध । ताहाते मजिले हय भक्ति तत्त्वे बाध ॥ ९.३७ ॥ नामाभासिव्यक्तिगण एइ कपट लोकेर सङ्गे अपराधी हन नामाभासी जनेर कुसङ्ग यदि हय । तबे एइ अपराध घटिबे निश्चय ॥ ९.३८ ॥ शुद्ध नामोदय यार हृदये हेबे । एइ नाम अपराध तार ना घटिबे ॥ ९.३९ ॥ शुद्ध नामाश्रित व्यक्तिर दश विध अपराध स्पर्श करे ना शुद्धनामाश्रित जने अपराध दश । कोन रूपे कोन काले ना करे परश ॥ ९.४० ॥ नामाश्रित जने नाम सदा रक्षा करे । अपराध कभु तार ना हेते पारे ॥ ९.४१ ॥ यत दिन शुद्ध नाम ना हय उदय । तत दिन अपराध आक्रमणे भय ॥ ९.४२ ॥ अतएव नामाभासी यदि भाल चाय । नाम बले पाप बुद्धि हेते पलाय ॥ ९.४३ ॥ कत दिन सावधाने अपराध परित्याग करा चाइ ? शुद्धनामाश्रितजनसङ्गबल धरिऽ । अपराध सतर्कता सर्वदा आचरिऽ ॥ ९.४४ ॥ शुद्धनाम यार मुखे तार दृढ मन । कृष्ण हैते विचलित नहे एक क्षण ॥ ९.४५ ॥ अतएव नाम बल यत दिन नय । तत दिन अपराधे करिबेक भय ॥ ९.४६ ॥ विशेष यतने पाप बुद्धि दूर करिऽ । अहर्निशि मुखे बलिबेक हरि हरि ॥ ९.४७ ॥ श्रीगुरुकृपाय हबे सुसम्बन्धज्ञान । कृष्णभक्ति कृष्णनाम ताहाते विधान ॥ ९.४८ ॥ एइ अपराध हेले ताहार प्रतिकार यद्यपि प्रमादे नामबले पापबुद्धि । शुद्ध वैष्णवेर सङ्गे करि तार शुद्धि ॥ ९.४९ ॥ पापस्पृहा बाटपाड पथे आसिऽ धरे । विशुद्ध वैष्णव गण पथ रक्षा करे ॥ ९.५० ॥ उच्चैःस्वरे डाकि रक्षकेर नाम धरिऽ । पलाइबे बाटपाड आसिबे प्रहरी ॥ ९.५१ ॥ आदरे बलिबे भाइ नाहि कर भय । आमि त रक्षक तव शुन महाशय ॥ ९.५२ ॥ केवल वैष्णवपददास्यव्रत यार । हरिनामचिन्तामणि पाय सेइ छार ॥ ९.५३ ॥ इति श्री हरिनामचिन्तामणौ नामबले पापबुद्धिर् नाम नवमः परिच्छेदः । (१०) दशम परिच्छेद अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति यश्चोपदेशः शिवनामापराधः गौर गदाधर जय जाह्नवाजीवन । जय जय सीताद्वैत जय भक्तगण ॥ १०.१ ॥ कर युडिऽ हरिदास बलेन वचन । आर नाम अपराध करह श्रवण ॥ १०.२ ॥ नामे दृढ विश्वासके श्रद्धा बलि, ताहा हेले इ नामे अधिकार हय याहार हृदये श्रद्धा ना हेल उदय । नाम नाहि शुने बहिर्मुख दुराशय ॥ १०.३ ॥ ना जन्मे से जनार नामे अधिकार । श्रद्धा मात्र अधिकार एइ तत्त्वसार ॥ १०.४ ॥ सज्जाति, सत्कुल, ज्ञान, बल, विद्या धन । नामे अधिकार दिते ना हय कारण ॥ १०.५ ॥ नामेर माहात्म्य येइ सुदृढ विश्वास । शास्त्रमते श्रद्धा सेइ सर्वत्र प्रकाश ॥ १०.६ ॥ श्रद्धाहीन जनके नाम दिले नामापराधी हय श्रद्धा नाहि जन्मे यार हरि नाम तारे । साधु जन नाहि देन वैष्णव आचारे ॥ १०.७ ॥ श्रद्धा हीन जन यदि हरि नाम पाय । अवज्ञा करिबे मात्र सर्व शास्त्रे गाय ॥ १०.८ ॥ शूकरके दिले रत्न से चूर्ण करिबे । बानरके दिले वस्त्र छिङ्डिया फेलिबे ॥ १०.९ ॥ श्रद्धा हीन पेये नाम अपराध मरे । सङ्गे सङ्गे गुरुके अभक्त शीघ्र करे ॥ १०.१० ॥ श्रद्धा हीन व्यक्ति नाम पाइते प्रार्थना करिले ताहार सहित कि रूपे व्यवहार करा उचित श्रद्धा विरहित जन शठता करिया । हरि नाम मागे वैष्णवेर काछे गिया ॥ १०.११ ॥ ताहार वञ्चना वाक्य बुझि साधु जन । हरि नाम नाहि देन तारे कदाचन ॥ १०.१२ ॥ साधु बले ओहे भाइ शाठ्य परिहर । प्रतिष्ठाशा दूरे राखि नामे श्रद्धा कर ॥ १०.१३ ॥ नामे श्रद्धा हैले नाम अनायासे पाबे । नामेर प्रभावे ए संसारे तरे याबे ॥ १०.१४ ॥ यत दिन नाहि तव नामे श्रद्धा भाइ । नाम लैते तोमार त अधिकार नाइ ॥ १०.१५ ॥ श्री नाम माहात्म्य साधु शास्त्र मुखे शुन । प्रतिष्ठाशा छाडि दैन्य करह ग्रहण ॥ १०.१६ ॥ नामे श्रद्धा हले तबे गुरु महाजन । नाम अर्पिबेन भाइ नाम महा धन ॥ १०.१७ ॥ श्रद्धा हीन जने अर्थ लोभे नाम दिया । नरकेते याय नामापराध मजिया ॥ १०.१८ ॥ एइ अपराधेर प्रतिकार प्रमादे यद्यपि नाम उपदेश हय । श्रद्धा हीने तबे गुरु पाय महा भय ॥ १०.१९ ॥ वैष्णव समाजे ताहा करि विज्ञापन । सेइ दुष्ट शिष्य त्याग करे महा जन ॥ १०.२० ॥ ताहा ना करिले गुरु अपराध क्रमे । भक्ति हीन दुराचार हय माया भ्रमे ॥ १०.२१ ॥ अतएव प्रभु यारे आदेश करिले । नाम प्रचारिते तारे एइ आज्ञा दिले ॥ १०.२२ ॥ ए विषये प्रभुर आज्ञा श्रद्धावान् जने कर नाम उपदेश । नाम महिमाय पूर्ण कर सर्वदेश ॥ १०.२३ ॥ उच्च सङ्कीर्तने कर श्रद्धार प्रचार । श्रद्धा लभि जीव करे सद्गुरु विचार ॥ १०.२४ ॥ सद्गुरु निकटे करे श्री नाम ग्रहण । अनायासे पाय तबे कृष्ण प्रेम धन ॥ १०.२५ ॥ चोर वेश्या शठ आदि पापासक्त जने । छाडाइया पाप मति दिबे श्रद्धा धने ॥ १०.२६ ॥ सुश्रद्ध हैले दिबे नाम उपदेश । एइ रूपे नाम दिया तार सर्व देश ॥ १०.२७ ॥ एइ रूप अपराधेर फल इहा ना करिया यिनि देन नाम धन । सेइ अपराधे ताङ्र नरके पतन ॥ १०.२८ ॥ नाम पेये शिष्य करे नाम अपराध । ताहाते गुरुर हय भक्ति रस बाध ॥ १०.२९ ॥ एइ नाम अपराधे दुङ्हे शिष्य गुरु । नरकेते याय एइ अपराध उरु ॥ १०.३० ॥ अग्रे श्रद्धा दिया नाम उपदेश दिबे जगा माधा प्रति तुमि महा कृपा करि । नामे श्रद्धा दिया नाम दिले गौर हरि ॥ १०.३१ ॥ अद्भुत चरित्र तव सर्व जन गण । श्रद्धाय करुक अनुकरण चरण ॥ १०.३२ ॥ भक्त पाद भक्तिते विनोद याहार । हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार तार ॥ १०.३३ ॥ (११) एकादश परिच्छेद अन्य शुभकर्मेर सहित नामके तुल्यज्ञान धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः । जय जय गौरचन्द्र नाम अवतार । जय जय हरिनाम सर्वतत्त्वसार ॥ ११.१ ॥ नामेर उपायत्व सत्त्वेओ उपेयत्व कृष्णनाम हय प्रभु पूर्णानन्द तत्त्व । उपेय वा सिद्धि बलि याहार महत्त्व ॥ ११.२६ ॥ उपाय हेया आविर्भूत धरातले । उपेय उपाय ऐक्य सर्व शास्त्रे बले ॥ ११.२७ ॥ अधिकारभेदे यिनि उपाय स्वरूप । तिनी उपेय अन्ये बड अपरूप ॥ ११.२८ ॥ शुभकर्म गौणोपाय नाम मुख्योपाय अतएव उपाय द्विविध गुण धाम । गौणोपाय शुभ कर्म मुख्योपाय नाम ॥ ११.२९ ॥ नामेर अतीन्द्रियत्व अतएव शास्त्रे यत अन्य शुभ कर्म । नाम सह नहे एइ सर्व शास्त्र मर्म ॥ ११.३० ॥ सरल हृदये यबे कृष्णनाम गाय । अतीन्द्रियसुख आसि चित्तके नाचाय ॥ ११.३१ ॥ सेइ सुख कृष्णनामस्वभाव तत्पर । आत्मरति आत्मक्रीडा नाहि यार पर ॥ ११.३२ ॥ सायुज्य कैवल्य सुख आनन्द सुखेर छाया मात्र ब्रह्म ज्ञाने योगे ये आनन्द वैभव । जडेर विच्छेद सुख छाया अनुभव ॥ ११.३३ ॥ अभेद्य कैवल्य सुख स्वल्प बलिऽ जानि । कृष्णनामानन्दसुख भूमा बलिऽ मानि ॥ ११.३४ ॥ अन्य शुभ कर्म हेते नामेर वैलक्षण्य साधनकालेते नाम उपाय स्वरूप । सिद्धिकाले उपेय से एइ अपरूप ॥ ११.३५ ॥ उपाय स्वरूप नामे उपेयत्व सिद्ध । अन्य शुभ कर्मे ऐछे नहे त प्रसिद्ध ॥ ११.३६ ॥ अन्य शुभ कर्म यत सब जडाश्रित । नाम त चिन्मय सदा स्वतः सिद्धोदित ॥ ११.३७ ॥ साधन कालेओ नाम शुद्ध सुनिर्मल । साधकेर अनर्थेते देखाय समल ॥ ११.३८ ॥ साधुसङ्गे नाम लैते जडबुद्धि याय । अनर्थ निःशेष हैले शुद्ध नाम भाय ॥ ११.३९ ॥ अन्य शुभ कर्मी करे त्यजिया उपाय । उपेय परम भाव चरमे आश्रय ॥ ११.४० ॥ किन्तु नामाश्रयी जन नाम नाहि त्यजे । नामेर शुद्धता मात्र सिद्धिकाले भजे ॥ ११.४१ ॥ अन्य शुभ कर्म हैते अति विलक्षण । नामेर स्वरूप हय अपूर्व लक्षण ॥ ११.४२ ॥ साधन दशाय एइ विलक्षण ज्ञान । गुरु कृपा हैते हय वेदेर प्रमाण ॥ ११.४३ ॥ साधन दशाय यिनि एइ ज्ञान हीन । नाम अपराधी तिंह अति अर्वाचीन ॥ ११.४४ ॥ नाम सर्वोपरि नामतुल्य किछु नय । ए दृढ विश्वास करि येइ नाम लय ॥ ११.४५ ॥ अचिरे ताङ्हाते हय शुद्धनामोदय । पूर्णानन्द नामरस करेन आश्रय ॥ ११.४६ ॥ एइ अपराधेर प्रतिकार काहारो यद्यपि अन्य शुभ कर्म सने । नामे सम बुद्धि हय दुष्कृति बन्धने ॥ ११.४७ ॥ से दुष्कृति क्षय लागि करिबे यतन । नामे शुद्ध बुद्धि पाबे प्रेम धन ॥ ११.४८ ॥ अन्त्यज गृहस्थ शुद्ध नाम परायण । ताङ्र पद धूलि देहे करिबे मृक्षण ॥ ११.४९ ॥ खाइबे अधरामृत पिबे पदजल । तबे शुद्ध नामे मति हेबे निर्मल ॥ ११.५० ॥ कालि दासे एइ रूपे दुष्कृति खण्डन । पुनः तव कृपाप्राप्ति गाय जगज्जन ॥ ११.५१ ॥ आमि जड बुद्धि नाथ एक मात्र गाइ । नामचिन्तामणितत्त्व कभु नाहि पाइ ॥ ११.५२ ॥ हरिदास ठाकुरेर नामविषये निष्ठा कृपा करिऽ नामरूपे आमार जिह्वाय । निरन्तर नाच प्रभु धरि तव पाय ॥ ११.५३ ॥ राख इङ्हा लओ ताङ्हा तव इच्छा मत । याङ्हा राख देह मोरे कृष्णनामामृत ॥ ११.५४ ॥ जगज्जने नाम दिते तव अवतार । जगज्जनमाझे मोरे कर अङ्गीकार ॥ ११.५५ ॥ आमि त अधम तुमि अधम तारण । उभये सम्बन्ध एइ पतित पावन ॥ ११.५६ ॥ अच्छेद्य सम्बन्ध एइ तोमाय आमाय । यार बले नामामृत ए अधम चाय ॥ ११.५७ ॥ कलियुगे नामे केन युगधर्म हेलेन कलियुगे सुदुःसाध्य अन्य शुभ कर्म । अतएव नाम आसिऽ हेल युग धर्म ॥ ११.५८ ॥ हरिदासदास भक्तिविनोद से जन । हरिनामचिन्तामणि गाय अकिञ्चन ॥ ११.५९ ॥ (१२) द्वादश परिच्छेद नामापराध प्रमाद प्रमादः जय जय महाप्रभु जय भक्तगण । जाङ्देर प्रसादे करि नामसङ्कीर्तन ॥ १२.१ ॥ प्रमादनामक अपराध हरिदास बले प्रभु हेथा सनातने । आर त गोपाल भट्ट दक्षिण भ्रमणे ॥ १२.२ ॥ शिखाइले अप्रमादे श्रीकृष्णभजने । प्रमादके अपराधे करिले गणन ॥ १२.३ ॥ अन्य अपराध त्ज्यजि सदा नाम लय । तबु नामे प्रेम नाहि हय त उदय ॥ १२.४ ॥ तबे जानि प्रमाद नामेते अपराध । प्रेम भक्ति साधनेते करितेछे बाध ॥ १२.५ ॥ अनवधानकेइ प्रमाद बले प्रमाद अनवधान एइ मूल अर्थ । इहा हैते घटे प्रभु सकल अनर्थ ॥ १२.६ ॥ तिन प्रकार अनवधान औदासीन्य जाड्य आर विक्षेप ए तिन । प्रकार अनवधान बुझिबे प्रवीण ॥ १२.७ ॥ अनुराग ना हओआ पर्यन्त नाम ग्रहणे यत्नेर आवश्यक कोन भाग्ये कोन जीवेर श्रद्धा यदि हय । तबे तिङ्ह हरिनाम ग्रहण करय ॥ १२.८ ॥ यत्न करि स्मरे नाम सङ्ख्यार सहित । तबे नामे अनुराग हय त उदित ॥ १२.९ ॥ ये पर्यन्त अनुराग ना हय उदय । से पर्यन्त यत्न करि नाम सदा लय ॥ १२.१० ॥ यत्नाभावे साधकेर चित्त स्थिर हय ना निसर्गतः लोक सब विषये आसक्त । स्मृतिकाले विषय अन्तरे अनुरक्त ॥ १२.११ ॥ रुचि याय अन्य स्थाने नामे उदासीन । नामे चित्त मग्न नहे जपे प्रतिदिन ॥ १२.१२ ॥ चित्त एक दिके आर अन्य दिके नाम । ताहार मङ्गल किसे हय गुण धाम ॥ १२.१३ ॥ लक्ष नाम हैले पूर्ण सङ्ख्या माला गणि । हृदये नहिल रस बिन्दु गुण मणि ॥ १२.१४ ॥ एइ त अनवधान दोषेर प्रकार । विषयी हृदये प्रभु बड दुर्निवार ॥ १२.१५ ॥ यत्न करिबार विधि साधु सङ्गे स्वल्प काल छाडिया विषय । निर्जने लेले नाम एइ दोष क्षय ॥ १२.१६ ॥ क्रमे क्रमे कृष्ण नामे चित्त हय स्थिर । निरन्तर नाम रसे हय त अधीर ॥ १२.१७ ॥ तुलसीर सन्निकटे कृष्ण लीला स्थाने । साधु सन्निधाने बसिऽ सात्वतविधाने ॥ १२.१८ ॥ क्रमे काल वृद्धि करि सेइ नाम स्मरे । अति शीघ्र विषयेर छन्द हेते तरे ॥ १२.१९ ॥ अन्य प्रक्रिया । एइ रूप करिले औदासीन्य रूप अनवधान हय ना अथवा निर्जने बसिऽ स्मरि साधुरीति । इन्द्रिय पिधान करिऽ नामे करे मति ॥ १२.२० ॥ सत्वरे नामेते निष्ठा रुचि क्रमे हय । औदासीन्य दोषे तार क्रमे हय क्षय ॥ १२.२१ ॥ जाड्यजनित अनवधान लक्षण जाड्ये ये अनवधानअ अलसेर मने । ताहे रुचि नाहि हय श्रीनामग्रहणे ॥ १२.२२ ॥ स्मृतिकाले पुनः शीघ्र विरामे प्रयास । एइ दोषे नामरस ना हय प्रकाश ॥ १२.२३ ॥ अन्य कार्ये वृथा काल ना हय यापन । साधु गण इहा चिन्तिऽ स्मरे अनुक्षण ॥ १२.२४ ॥ नाम स्मरे रसे मजे अन्य नाहि चाय । सेइ रूप साधु सङ्गे एइ दोस याय ॥ १२.२५ ॥ अन्वेषिया सेइ रूप साधुसङ्ग करे । तद्अनुकरणे चित्त जाड्य परिहरे ॥ १२.२६ ॥ अव्यर्थ कालत्व धर्म साधुर चरित । देखिले ताहाते रुचि हेबे निश्चित ॥ १२.२७ ॥ मने हबे आहा कबे इहार समान । स्मरिब गाइब नाम हये भाग्यवान् ॥ १२.२८ ॥ सेइ त उत्साह आसि अलसेर मने । जाड्य दूर करे कृष्णनामेर स्मरणे ॥ १२.२९ ॥ मने हबे आज लक्ष नाम ये करिब । क्रमे क्रमे तिन लक्ष नाम ये स्मरिब ॥ १२.३० ॥ महाग्रह हबे चित्ते नामेर सङ्ख्याय । अचिरे याइबे जाड्य साधुर कृपाय ॥ १२.३१ ॥ विक्षेप जनित अनवधान लक्षण विक्षेप हेते येइ प्रमाद उदय । बहु यत्ने सेइ अपराध हय क्षय ॥ १२.३२ ॥ कनक कामिनी आर जय पराजय । प्रतिष्ठाशा शाठ्यवृत्ति ताहार निलय ॥ १२.३३ ॥ ए सब आकृष्टि हृदे हेले उदय । नामेते अनवधान स्वभावतः हय ॥ १२.३४ ॥ विक्षेपत्यागेर उपाय क्रमे क्रमे सेइ सब चिन्ता परिहारे । यतिबे सौभाग्यवान् वैष्णव आचारे ॥ १२.३५ ॥ प्रथमेते हरिदिने भोगचिन्ता त्यजिऽ । साधु सङ्गे रात्रदिन हरिनाम भजि ॥ १२.३६ ॥ हरिक्षेत्रे हरि दास हरि शास्त्रे लये । उत्सवे मजिबे सुखे परम निर्भये ॥ १२.३७ ॥ क्रमे भक्तिकाल मन करिबे वर्धन । हरिकथा महोत्सवे मजाइया मन ॥ १२.३८ ॥ श्रेष्ठ रस क्रमे चित्ते हेबे उदय । जडेर निकृष्ट रस छाडिबे निश्चय ॥ १२.३९ ॥ महाजन मुखे हरिसङ्गीत श्रवणे । मुग्ध हबे मनः कर्ण रस आस्वादने ॥ १२.४० ॥ निकृष्ट विषयस्पृहा हेबे विगत । नाम गाने चित्त स्थिर हबे अविरत ॥ १२.४१ ॥ अतएव बहु यत्ने ए प्रमाद त्यजे । स्थिर चित्ते नाम रसे चिर दिन मजे ॥ १२.४२ ॥ आग्रह सङ्कल्पित नाम सङ्ख्या पूर्ण करिबारे । ना हय अयत्न नामे देखि बारे बारे ॥ १२.४३ ॥ सतर्क हेया करि नाम सङ्कीर्तन । प्रमाद छाडिया करि नामेर भजन ॥ १२.४४ ॥ सङ्ख्याधिक स्पृहा एकाग्रमानसे । निरन्तर करिऽ नाम तव कृपाबले ॥ १२.४५ ॥ एइ कृपा कर प्रभु नामेते प्रमाद । ना बाधे आमार चित्ते नाम रसास्वाद ॥ १२.४६ ॥ प्रक्रिया एकाग्र मानसे निर्जनेते स्वल्प क्षण । नाम स्मृति अभ्यास करिबे भक्त जन ॥ १२.४७ ॥ अतएव स्पष्ट नाम भाव लग्न मने । सदा हय ए प्रार्थना तोमार चरणे ॥ १२.४८ ॥ आपन यत्नेते केह नाहि पारे । तोमार प्रसाद विना ए भवसंसारे ॥ १२.४९ ॥ यत्नाग्रहेर आवश्यकता । निष्कपट नाम ग्रहणे ताहा अवश्य थाके, नतुवा अपराध यत्न करि कृपा मागि व्याकुल अन्तरे । तुमि कृपामय कृपा कर अतःपरे ॥ १२.५० ॥ तव कृपा लाभे यदि ना करि यतन । तबे आमि भाग्य हीन हे शचीनन्दन ॥ १२.५१ ॥ हरिनामचिन्तामणि अलङ्कार यार । हरिदासपदयुग भरसा ताहार ॥ १२.५२ ॥ (१३) त्रयोदश परिच्छेद श्रुतेऽपि नाममाहात्म्ये यः प्रीतिरहितो नरः । अहंममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ १३. गदाइ गौराङ्ग जय जाह्नवा जीवन । सीताद्वैत जय जय गौरभक्तजन ॥ १३.१ ॥ प्रेमे गद गद हरिदास महाशय । शेष नाम अपराध प्रभु पदे कय ॥ १३.२ ॥ शुन प्रभु एइ अपराध सर्वाधम । एइ दोषे नाम प्रेम ना हय उद्गम ॥ १३.३ ॥ नामे शरणापत्तिर प्रयोजनीयता अन्य नय अपराध करिया वर्ज्जन । नामेते शरणापन्न हेबे सज्जन ॥ १३.४ ॥ षड्विध शरणागति सर्व शास्त्रे कय । विस्तारित बलिते आमार साध्य नय ॥ १३.५ ॥ शरणापत्तिर प्रकार संक्षेपे चरणे तव करि निवेदन । आनुकूल्ये सङ्कल्प प्रातिकूल्य विसर्जन ॥ १३.६ ॥ कृष्णे रक्षाकारी बुद्धि पालक भावन । निजे दीन बुद्धि आर आत्मनिवेदन ॥ १३.७ ॥ ए जीवन ना रहिले ना हय भजन । जीवन रक्षाय मात्र विषय ग्रहण ॥ १३.८ ॥ भक्ति अनुकूल ये विषय अनुक्षण । ताहे रोचमान वृत्त्ये जीवन यापन ॥ १३.९ ॥ भक्ति प्रतिकूल ये विषये यबे हय । ताहाते अरुचि ताहा वर्जिबे निश्चय ॥ १३.१० ॥ कृष्ण विना रक्षाकर्ता नाहि केह आर । कृष्ण से पालक मात्र जानिबे आमार ॥ १३.११ ॥ आमि दीन अकिञ्चन सकलेर छार । अधम दुर्गत किछु नाहिक आमार ॥ १३.१२ ॥ कृष्णेर संसारे आमि आछि चिर दास । कृष्ण इच्छा मत क्रिया आमार प्रयास ॥ १३.१३ ॥ आमि कर्ता आमि दाता आमि पालयिता । आमार ए देह गेह सन्तान वनिता ॥ १३.१४ ॥ आमि विप्र आमि शूद्र आमि पिता पति । आमि राजा आमि प्रजा सन्तानेर गति ॥ १३.१५ ॥ एइ सब बुद्धि छाडि कृष्णे करि मति । कृष्ण कर्ता कृष्ण इच्छा मात्र बलवती ॥ १३.१६ ॥ कृष्णेर ये हय इच्छा ताहाइ करिब । निज इच्छा अनुसारे किछु ना चिन्तिब ॥ १३.१७ ॥ कृष्ण इच्छा मते हय आमार संसार । कृष्ण इच्छा मते आमि हे भवपार ॥ १३.१८ ॥ दुःखे थाकि सुखे थाकि आमि कृष्ण दास । कृष्णेच्छाय सर्व जीवे दयार प्रकाश ॥ १३.१९ ॥ मम भोग कर्मभोग कृष्ण इच्छा मत । आमार वैराग्य कृष्ण इच्छा अनुगत ॥ १३.२० ॥ शरणापत्ति हेले आत्मनिवेदन हय सरल भावेते यबे एइ भाव हय । आत्म निवेदन तारे बलि महाशय ॥ १३.२१ ॥ शरणापत्ति व्यतीत नामाश्रये याहा हय षड्विध शरणागति नाहिक याहार । से अधम अहं मम बुद्धि दोषे छार ॥ १३.२२ ॥ से बले आमि त कर्ता संसार आमार । निज कर्म फल भोग सुख दुःख आर ॥ १३.२३ ॥ आमार रक्षक आमि, आमि त पालक । आमार वनिता भ्राता बालिका बालक ॥ १३.२४ ॥ आमि त अर्जन करि आमार चेष्टाय । सर्व कार्य्य सिद्ध हय सर्व शोभा पाय ॥ १३.२५ ॥ अहं मम बुद्धि क्रमे बहिर्मुख जन । निज ज्ञान बले बहु करये मानन ॥ १३.२६ ॥ सेइ ज्ञान बले शिल्प विज्ञान विस्तारे । ईश्वरेर ईशिता ना माने दुष्टाचारे ॥ १३.२७ ॥ श्रीनाममाहात्म्य शुनि विश्वास ना करे । लोक व्यवहारे कभु कृष्णनामोच्चारे ॥ १३.२८ ॥ कृष्ण नाम करे तबु नाहि पाय प्रीति । धर्म ध्वजी शठ जन जीवने ए रीति ॥ १३.२९ ॥ हेलाय उच्चारे नाम किछु पुण्य हय । प्रीति फल नाहि फले सर्व शास्त्रे कय ॥ १३.३० ॥ इहार मूल कि ? माया बद्ध हैते एइ अपराध हय । इहाते निष्कृति लाभ कठिन निश्चय ॥ १३.३१ ॥ शुद्ध भक्ति फले याङ्र विरक्ति हेल । संसार छाडिया सेइ नामाश्रय निल ॥ १३.३२ ॥ एइ दोष त्यागेर उपाय निष्किञ्चन भावे भजे श्री कृष्ण चरण । विषय छाडिया करे नाम सङ्कीर्तन ॥ १३.३३ ॥ सेइ साधु जने अन्वेषिया ताङ्र सङ्ग । करिबे सेविबे छाडि विषय तरङ्ग ॥ १३.३४ ॥ क्रमे क्रमे नामे मति हेबे सञ्चार । अहंता ममता याबे माया हबे पार ॥ १३.३५ ॥ नामेर माहात्म्य शुनि अहं मम भाव । छाडिया शरणातै भक्तेर स्वभाव ॥ १३.३६ ॥ नामेर शरणागत येइ महाजन । कृष्ण नाम करे पाय प्रेम महा धन ॥ १३.३७ ॥ दशापराध शून्य व्यक्तिर लक्षण अतएव साधु निन्दा यतने छाडिया । पर तत्त्व विष्णु शुद्ध मनेते जानिया ॥ १३.३८ ॥ नाम गुरु नाम शास्त्र सर्वोत्तम जानि । विशुद्ध चिन्मय नाम हृदयेते मानि ॥ १३.३९ ॥ पाप स्पृहा पाप बीज त्यजिया यतने । प्रचारिया शुद्ध नाम श्रद्धान्वित जने ॥ १३.४० ॥ अन्य शुभ कर्म हैते लेया विराम । स्मरे ये शरणागत अप्रमादे नाम ॥ १३.४१ ॥ निरपराधे नामे लेले अल्प दिने भावोदय हय सेइ धन्य त्रिजगते सेइ भाग्यवान् । कृष्ण कृपा योग्य सेइ गुणेर निदान ॥ १३.४२ ॥ अति अल्प दिने ताङ्र श्रीनामग्रनणे । भावोदय हय आर पाय प्रेम धने ॥ १३.४३ ॥ उन्नति क्रम एवम्भूत जनेर साधन दशा प्राय । अति स्वल्प दिने याय कृष्णेर इच्छाय ॥ १३.४४ ॥ भाव दशा हैते हैते प्रेम दशा हय । प्रेम दशा सर्व सिद्धि सर्व शास्त्र कय ॥ १३.४५ ॥ तुमि बलियाछ नाम येइ महाजन । लेबे निरपराधे पाबे प्रेम धन ॥ १३.४६ ॥ व्यतिरेक भावे इहार चिन्ता अपराध नाहि छाडिऽ नाम यदि लय । सहस्र साधने तार भक्ति नाहि हय ॥ १३.४७ ॥ ज्ञाने मुक्ति कर्मे भुक्ति ज्ञानी कर्मी जने । सुदुर्लभा कृष्ण भक्ति निर्मल साधने ॥ १३.४८ ॥ भुक्ति मुक्ति भक्ति सम भक्ति मुक्ता फल । जीवेर महिमा भकि प्राप्ति सुनिर्मल ॥ १३.४९ ॥ साधने नैपुण्य योगे अत्यल्प साधने । भक्ति लता प्रेम फल देन भक्त जने ॥ १३.५० ॥ भजन नैपुण्य दश अपराध छाडि नामेर ग्रहण । इहाइ नैपुण्य हय साधन भजन ॥ १३.५१ ॥ नामापराधेर गुरुता अतएव भक्ति लाभे यदि लोभ हय । दश अपराध छाडि करि नामाश्रय ॥ १३.५२ ॥ एक एक अपराध सतर्क हेया । यतनेते छाडि चित्ते विलाप करिया ॥ १३.५३ ॥ नामेर चरणे करि दृढ निवेदन । नाम कृपा हले अपराध विध्वंसन ॥ १३.५४ ॥ अन्य शुभ कर्मे नाम अपराध क्षय । कोन प्रायश्चित्त योगेकभु नाहि हय ॥ १३.५५ ॥ नामापराध परित्यागेर उपाय अविश्रान्त नामे नाम अपराध याय । ताहे अपराध कभु स्थान नाहि पाय ॥ १३.५६ ॥ दिवारात्र नाम लय अनुताप करे । तबे अपराध याय नाम फल धरे ॥ १३.५७ ॥ अपराध गते शुद्ध नामेर उदय । शुद्ध नाम भावमय आर प्रेम मय ॥ १३.५८ ॥ दश अपराध येन हृदये ना पशे । कृपा कर महाप्रभु मजि नाम रसे ॥ १३.५९ ॥ ए भक्तिविनोद हरिदास कृपा बले । हरिनामचिन्तामणि गाय कुतूहले ॥ १३.६० ॥ (१४) चतुर्दश परिच्छेद सेवापराध जय गौरगदाधर जाह्नवा जीवन । जय सीतापति श्रीवासादिभक्तजन ॥ १४.१ ॥ नामतत्त्वे श्रीहरिदास ठाकुरके आचार्य बलिया उक्ति करियाछेन् महाप्रभु बले शुन भक्त हरिदास । नाम अपराध तत्त्व करिले प्रकाश ॥ १४.२ ॥ इहाते कलिर जीव लभिबे मङ्गल । नामतत्त्वे तुमि हओ आचार्य प्रबल ॥ १४.३ ॥ तव मुखे नामतत्त्व करिते श्रवण । आमार उल्लास बड शुन महाजन ॥ १४.४ ॥ आचारे आचार्य तुमि प्रचारे पण्डित । तोमार चरित नामरत्ने विभूषित ॥ १४.५ ॥ रामानन्द शिखाइल मोरे रसतत्त्व । तुमि शिखाइले मोरे नामेर महत्त्व ॥ १४.६ ॥ एबे बल सेवा अपराध कि प्रकार । शुनिया घुचिबे जीवेर चित्त अन्धकार ॥ १४.७ ॥ हरिदास बले से सेवक जन जाने । आमि नामाश्रये थाकि जानिब केमने ॥ १४.८ ॥ तबु तव आज्ञा आमि लङ्घिबारे नारि । याहा बलाइबे ताहा बलिब विस्तारि ॥ १४.९ ॥ सेवापराध सङ्ख्या सेवा अपराध हय अनन्त प्रकार । श्रीमूर्ति सम्बन्धे सब शास्त्रेर विचार ॥ १४.१० ॥ कोन शास्त्रे द्वात्रिंशतपराध गणि । कोन शास्त्रे पञ्चाशत्गञे गुणमणि ॥ १४.११ ॥ चतुर्विध सेइ अपराध चतुर्विधादि प्रकारे । विभाग करेन बुध गण शास्त्रे द्वारे ॥ १४.१२ ॥ श्रीमूर्तिसेवक निष्ठ कतगुलि तार । श्री मूर्ति स्थापक निष्ठ अपराध आर ॥ १४.१३ ॥ श्रीमूर्ति दर्शक निष्ठ आर कतिपय । सर्व निष्ठ अपराध कतिविध हय ॥ १४.१४ ॥ सेवापराध द्वात्रिंश प्रकार पादुका सहित याय ईश्वर मन्दिरे । याने चडिऽ याय तथा स्वच्छन्द शरीरे ॥ १४.१५ ॥ उत्सवे ना सेवे आर प्रगति ना करे । उच्छिष्ठ अशौच देहे वन्दन आचरे ॥ १४.१६ ॥ एक हस्ते प्रणाम सम्मुखे प्रदक्षिण । देवाग्रे प्रसारे पद हय वीरासीन ॥ १४.१७ ॥ देवाग्रे शयन आर भक्षण करय । मिथ्या कथा उच्च भाषा जल्पना निचय ॥ १४.१८ ॥ निग्रहानुग्रह युद्ध अभक्ति रोदन । क्रूर भाषा पर निन्दा कम्बलावरण ॥ १४.१९ ॥ पर स्तुति, अश्लीलता, वायुविमोक्षण । शक्ति सत्त्वे गौण उपचारेर योजन ॥ १४.२० ॥ देवानिवेदित द्रव्य भक्षणे स्वीकार । कालोदित फलादिर अनर्पण आर ॥ १४.२१ ॥ अन्य भुक्त अवशिष्ट खाद्य निवेदन । देव प्रति पृष्ठ करि सम्मुखे आसन ॥ १४.२२ ॥ देवाग्रे अन्येर अभिवादन पूजन । गुरु प्रति मौन निज स्तोत्र आलोचन ॥ १४.२३ ॥ देवता निन्दन एइ द्वात्रिंश प्रकार । सेवा अपराध महा पुराणे प्रचार ॥ १४.२४ ॥ अन्य शास्त्र मते प्रकार वर्णन अन्यत्र आछये अपराध अन्यतम । संक्षेपे बलिब प्रभु तव इच्छा मत ॥ १४.२५ ॥ राजान्न भोजन आर अन्धकार घरे । प्रवेशिया देव मूर्ति संस्पर्शन करे ॥ १४.२६ ॥ अविधि पूर्वक हरि मृत्यु समर्पण । विना वाद्ये मन्दिरेर द्वार उद्घाटन ॥ १४.२७ ॥ सारमेय दृष्ट खाद्य देवे समर्पण । अर्चन समये मौन भङ्ग अकारणे ॥ १४.२८ ॥ बहिर्देशे गमनादि पूजार समये । गन्ध माल्य नाहि दिया धूपन करये ॥ १४.२९ ॥ अनर्हपुष्पेते कृष्ण पूजादि करण । अधौत वदने कृष्ण पूजा आरम्भन ॥ १४.३० ॥ स्त्री सङ्ग करिया किम्बा रजःस्वला नारी । दीप, शब स्पर्शिया, अयोग्य वस्त्र परिऽ ॥ १४.३१ ॥ शब हेरिऽ, अधोवायु करिया मोक्षण । क्रोध करिऽ श्मशानेते करिया गमन ॥ १४.३२ ॥ अजीर्ण उदरे आर कुसुम्भ पैनाक । सेवन करिया आर ताम्बुल गुवाक ॥ १४.३३ ॥ तैल माखि करि हरिश्रीमूर्तिस्पर्शन । एरण्डपत्रस्थ पुष्पे करय अर्चन ॥ १४.३४ ॥ आसुरिक काले पूजे पीठे भूमे बसि । स्नपन समये मूर्ति वाम हस्ते स्पर्शिऽ ॥ १४.३५ ॥ वासि वा याचित फुले देवता अर्चन । पूजा काले गर्व उक्ति अयथा ष्ठीवन ॥ १४.३६ ॥ तिर्यक्पुण्ड्र धरे आर अधौत चरणे । मन्दिरे प्रवेश करे पूजार कारणे ॥ १४.३७ ॥ अवैष्णव पक्व करे देवे निवेदन । अवैष्णवे देखाइया करये पूजन ॥ १४.३८ ॥ विश्वक्सेने ना पूजिया कापालि देखिया । हरि पूजे नख जले श्री मूर्ति स्मरिया ॥ १४.३९ ॥ घर्माम्बुसंस्पृष्ट जले करये अर्चन । कृष्णेर शपथ करे निर्माल्य लङ्घन ॥ १४.४० ॥ एइ सब कार्य्ये हय सेवा अपराध । सेवाकारी जनेर याहाते भक्ति बाध ॥ १४.४१ ॥ सेवापराध याहार पक्षे याहा, ताहा तिनि वर्ज्जन करिबेन श्रीमूर्ति सम्बन्धे यार भजन पूजन । सेवा अपराध तेङ्ह करुन् वर्ज्जन ॥ १४.४२ ॥ वैष्णव सर्वदा नाम सेवा अपराध । वर्जिया श्रीकृष्णसेवा करुन आस्वाद ॥ १४.४३ ॥ एइ सब अपराध मध्ये याङ्र याहा । सम्बन्धे पडिबे ताङ्र वर्ज्जनीय ताहा ॥ १४.४४ ॥ नामापराध सकल वैष्णवमात्रेरे वर्ज्जनीय किन्तु नाम अपराध सकल वैष्णव । सर्व काल त्यजिऽ लभे भक्तिर वैभव ॥ १४.४५ ॥ भावसेवाय सेवापराध विचार स्वल्प श्रीमूर्ति विरहे यिनि निर्ज्जनेते बसिऽ । भजनकारणे भाव मार्गे अहर्निशि ॥ १४.४६ ॥ नाम अपराध सदा वर्ज्जनीय ताङ्र । नाम अपराध दश सर्व क्लेशाधार ॥ १४.४७ ॥ नाम अपराध गते भाव सेवा हय । अतएव अपराध ताहे नाहि रय ॥ १४.४८ ॥ नाम स्मरण कारीदेर भावसेवाइ कर्तव्य श्री नाम स्मरणे भाव सेवार उदय । तोमार कृपाय प्रभु जीवे भाग्योदय ॥ १४.४९ ॥ भक्तिर साधन यत आछय प्रकार । से सब चरमे देय नामे प्रेम सार ॥ १४.५० ॥ अतएव नाम लय नाम रसे मजे । अन्य ये प्रकार सब ताहा नाहि भजे ॥ १४.५१ ॥ हरिदास आज्ञा बले अकिञ्चन जन । हरिनामचिन्तामणि करिला कीर्तन ॥ १४.५२ ॥ (१५) पञ्चदश परिच्छेद भजनप्रणाली गदाइ गौराङ्ग जय जय नित्यानन्द । जय सीतानाथ जय गौरभक्तवृन्द ॥ १५.१ ॥ सब छाडि हरिनाम जे करे भजन । जय जय भाग्यवान् सेइ महाजन ॥ १५.२ ॥ प्रभु बले हरिदास तुमि भक्तिबले । पेयेछ सकल ज्ञान ए जगतीतले ॥ १५.३ ॥ सर्ववेद नाचे देखि तोमार जिह्वाय । सकल सिद्धान्त देखि तोमार कथाय ॥ १५.४ ॥ नामरसजिज्ञासा एबे स्पष्ट बल नामरस कि प्रकार । कि रूपे लभिबे जीव ताहे अधिकार ॥ १५.५ ॥ हरिदास महाप्रेमे करे निवेदन । तोमार प्रेरणाबले करिब वर्णन ॥ १५.६ ॥ रसतत्त्व शुद्धतत्त्व परतत्त्व येइ वस्तु सिद्ध । रस नामे सर्ववेदे ताहाइ प्रसिद्ध ॥ १५.७ ॥ सेइ से अखण्ड रस परब्रह्म तत्त्व । अनन्त आनन्दधाम चरम महत्त्व ॥ १५.८ ॥ शक्ति शक्तिमान् रूपे विशेष ताहाय । भेद नाइ भेद सम दर्शनेते भाय ॥ १५.९ ॥ शक्तिमान् सुदुर्लक्ष्य शक्ति प्रकाशिनी । त्रिविध शक्तिर क्रिया विश्वविकाशिनी ॥ १५.१० ॥ चिच्छक्तिद्वारा वस्तुप्रकाश चिच्छक्तिस्वरूपे प्रकाशये वस्तु रूप । वस्तु नाम वस्तु धाम तत्क्रिया स्वरूप ॥ १५.११ ॥ कृष्ण से परम वस्तु श्याम तार रूप । कृष्णधाम गोलोकादि लीलार स्वरूप ॥ १५.१२ ॥ नाम धाम रूप गुण लीला आदि यत । सकले अखण्डाद्वय ज्ञान अन्तर्गत ॥ १५.१३ ॥ विचित्रता यत सब परा शक्ति कर्म । कृष्ण धर्मी परा शक्ति कृष्ण नित्य कर्म ॥ १५.१४ ॥ धर्मधर्मी भेद नाइ अखण्ड अद्वये । विचित्र विशेष मात्र सच्चिन्निलये ॥ १५.१५ ॥ मायाशक्तिर स्वरूप सेइ शक्तिछाया एक माया संज्ञा पाय । बहिरङ्ग विश्व सृजे कृष्णेर इच्छाय ॥ १५.१६ ॥ जीवशक्ति भेदाभेदमयी जीवशक्ति जीवगणे । ताटस्थ्ये प्रकाशे कृष्ण सेवार कारणे ॥ १५.१७ ॥ दुइ प्रकार दशा विशिष्ट जीव नित्यबद्ध नित्यमुक्त जीव द्विप्रकार । नित्य मुक्ते नित्य कृष्ण सेवा अधिकार ॥ १५.१८ ॥ नित्य बद्ध माया गुणे करये संसार । बहिर्मुख अन्तर्मुख भेदे द्विप्रकार ॥ १५.१९ ॥ अन्तर्मुख साधुसङ्गे कृष्णनाम पाय । कृष्णनामप्रभावेते कृष्णधामे याय ॥ १५.२० ॥ रस नामस्वरूप नाम त अखण्ड रस कलिका ताहार । कृष्ण आदि संज्ञारूपे विश्वेते प्रचार ॥ १५.२१ ॥ रस रूपस्वरूप स्वल्प स्फुट कलिका से रूप मनोहर । श्रीगोलोके वृन्दावने श्रीश्यामसुन्दर ॥ १५.२२ ॥ रस गुणस्वरूप सौरभित कलिका से चतुःषष्ठिगुण । प्रकाशे नामेर तत्त्व जानेन निपुण ॥ १५.२३ ॥ रस लीलास्वरूप पूर्ण प्रस्फुटित नाम कुसुम सुन्दर । अष्टकाल नित्यलीला प्रकृतिर पर ॥ १५.२४ ॥ भक्तिस्वरूप जीवे नाम कृपोदये स्वरूप ह्लादिनी । संवितेर सारयुता भक्तिस्वरूपिणी ॥ १५.२५ ॥ भक्तिक्रिया आविर्भूत हये नामे प्रस्फुटित करि । रसेर सामग्री प्रकाशये सर्वेश्वरी ॥ १५.२६ ॥ विशुद्ध चिन्मय जीव लभिया स्वरूप । सेइ रसे प्रवेशे एइ अपरूप ॥ १५.२७ ॥ रसेर विभाव आलम्बन रसेर विभाव सेइ तत्त्व आलम्बन । तद्आश्रय भक्त, तद्विषय कृष्णधन ॥ १५.२८ ॥ नाम करे अविरत भक्त महाशय । कृपा करि रूपगुणलीलार उदय ॥ १५.२९ ॥ रसेर विभाव उद्दीपन उद्दीपन कृष्णरूप गुणादिक यत । आलम्बन उद्दीपन विभावे संयुत ॥ १५.३० ॥ विभाव हैते अनुभाव विभाव सम्पूर्ण हैले अनुभाव हय । प्रेमेर विकार सब शुद्ध प्रेममय ॥ १५.३१ ॥ सञ्चारिभाव ओ सात्त्विकमिश्रे विभाव क्रिया करे, स्थायीभावे रस हय सञ्चारी सात्त्विक क्रमे उदित हेले । स्थायीभाव रस हय सर्वशास्त्र बले ॥ १५.३२ ॥ ताहा पाइबार क्रम सेइ रस सर्वसार सिद्धिसार जानि । परम पुरुष अर्थ सर्वशास्त्रे मानि ॥ १५.३३ ॥ भक्त्य्उन्मुख जीव शुद्धगुरुर कृपाय । श्रीयुगल ब्रह्मनाम सौभाग्येते पाय ॥ १५.३४ ॥ तुलसीमालाय नाम सङ्ख्या करि स्मरे । अथवा कीर्तन करे परम आदरे ॥ १५.३५ ॥ एक ग्रन्थ सङ्ख्या करि आरम्भिबे नाम । क्रमे तिन लक्ष स्मरि पूरे मनस्काम ॥ १५.३६ ॥ सङ्ख्या मध्ये किछु नाम करिबे कीर्तन । ताते सर्वेन्द्रिय स्फूर्ति आनन्दनर्तन ॥ १५.३७ ॥ नाम नवविध अङ्ग करय आश्रय । तथापि कीर्तन स्मृति सर्वश्रेष्ठ हय ॥ १५.३८ ॥ अर्चनमार्ग ओ श्रवणकीर्तनेर अधिकारभेदे क्रियाभेद अर्चनमार्गेते गाढतर रुचि याङ्र । श्रवणकीर्तनसिद्धि ताहाते ताङ्हार ॥ १५.३९ ॥ नामे ऐकान्तिकी रति हेबे याङ्हार । श्रवणकीर्तनस्मृति केवल ताङ्हार ॥ १५.४० ॥ नाम श्रवणकीर्तनस्मरणे ये क्रम सेवा नति दास्य सख्य आत्मनिवेदन । सहजे नामेर सङ्गे हय प्रवर्तन ॥ १५.४१ ॥ नामनामी एक तत्त्व विश्वास करिया । दश अपराध छाडि निर्जने बसिया ॥ १५.४२ ॥ अति स्वल्प दिने नाम हेया सदय । श्रीश्यामसुन्दररूपे हयेन उदय ॥ १५.४३ ॥ यबे नामरूपे ऐक्य हयत साधने । नाम लैते रूप आइसे चित्ते सर्वक्षणे ॥ १५.४४ ॥ तार किछु दिने रूपे गुण करि योग । श्रीनाम स्मरणे गुण करय सम्भोग ॥ १५.४५ ॥ नामरूपगुणेर एकता स्वल्पदिने नाम रूप गुण एक हय । नाम लैते सर्वक्षणे तिनेर उदय ॥ १५.४६ ॥ उपासना मन्त्र ध्यान मयी मन्त्र ध्यान मयी एइ नाम उपासना । प्राथमिक धारा जानि करे विभावना ॥ १५.४७ ॥ स्मृति काले योग पीठे कल्पद्रुमतले । गोपगोपीवृते कृष्णे देखे कुतूहले ॥ १५.४८ ॥ सात्त्विकविकार सब हय प्रस्फुटित । भजन आनन्दे भक्त हय पुलकित ॥ १५.४९ ॥ क्रमे यबे नाम स्वसौरभे प्रफुल्लित । अष्टकाल कृष्णलीला हेबे उदित ॥ १५.५० ॥ स्वारसिकी उपासना स्वारसिकी उपासना हेबे उदय । लीलोचित पीठे कृष्णे दर्शन करय ॥ १५.५१ ॥ सङ्गे सङ्गे गुरुकृपा सिद्धस्वरूपेते । लीलाय प्रवेशे भक्त सखीर सङ्गेते ॥ १५.५२ ॥ महाभाव स्वरूपिणी वृषभानुसुता । ताङ्र अनुगत भक्ति सदा प्रेमयुता ॥ १५.५३ ॥ सखी आज्ञा मते करे युगलसेवन । महाप्रेमे मग्न हय से रसिक जन ॥ १५.५४ ॥ लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि साधनभजनसिद्धि लागालागि ताय । लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि तोमार कृपाय ॥ १५.५५ ॥ तद्उत्तरावस्था वर्णन हय ना, केवल अनुभूत हय इहार अधिक आर वाक्य नाहि चले । तदुत्तर अनुभव लभि कृपाबले ॥ १५.५६ ॥ एइ त उज्ज्वल रस परम साधन । इहाते निश्चय मिले कृष्ण प्रेम धन ॥ १५.५७ ॥ साधने एकादश भाव साधिते उज्ज्वलरस आछे भाव एकादश सम्बन्ध वयस नाम रूप । यूथ वेश आज्ञावास सेवा पराकाष्ठाश्वास पाल्यदासी एइ अपरूप ॥ १५.५८ ॥ भाव साधने पञ्चदशा एइ एकादश भाव सम्पूर्ण साधने । पञ्च दशा लक्ष्य हय साधक जीवने ॥ १५.५९ ॥ श्रवण वरण आर स्मरण आपन । सम्पत्ति ए पञ्चविध दशाय गणन ॥ १५.६० ॥ प्रथम श्रवण दशा निजापेक्षा श्रेष्ठ शुद्धभावुक ये जन । भावमार्गे गुरुदेव सेइ महाजन ॥ १५.६१ ॥ ताङ्हार श्रीमुखे भावतत्त्वेर श्रवण । हेले श्रवणदशा हय प्रकटन ॥ १५.६२ ॥ भावतत्त्व भावतत्त्व द्विप्रकार करह विचार । निज एकादश भाव कृष्णलीला आर ॥ १५.६३ ॥ क्रमे वरण दशा प्राप्ति राधाकृष्ण अष्टकाल येइ लीला करे । ताहार श्रवणे लोभ हय अतःपरे ॥ १५.६४ ॥ लोभ हेले गुरुपदे जिज्ञासा उदय । केमने पाइब लीला कह महाशय ॥ १५.६५ ॥ गुरुदेव कृपा करि करिबे वर्णन । लीलातत्त्वे एकादश भावसङ्घटन ॥ १५.६६ ॥ प्रसन्न हेया प्रभु करिबे आदेश । एइ भावे लीलामध्ये करह प्रवेश ॥ १५.६७ ॥ शुद्ध रूपे सिद्ध भाव करिया श्रवण । सेइ भाव स्वीय चित्ते करिबे वरण ॥ १५.६८ ॥ निजरुचि श्रीगुरुदेवके बलिबे वरण कालेते निज रुचि विचारिया । गुरुपदे जानाइबे सरल हेया ॥ १५.६९ ॥ प्रभु तुमि कृपा करि येइ परिचय । दिले मोरे ताहे मोर पूर्ण प्रीति हय ॥ १५.७० ॥ स्वभावतः मोर एइ भावे आछे रुचि । अतएव आज्ञा शिरे धरि ह्ये शुचि ॥ १५.७१ ॥ अन्यरुचि हेले गुरुदेव अन्यभाव दिबेन रुचि यदि नहे तबे अकपट मने । निवेदिबे निजरुचि श्रीगुरुचरणे ॥ १५.७२ ॥ विचारिया गुरुदेव दिबे अन्यभाव । ताहे रुचि हेले प्रकाशिबे निजभाव ॥ १५.७३ ॥ निजसिद्धभाव गुरुदेवके जानाइबे एइ रूपे गुरु शिष्य संवादे घटने । निजसिद्धभाव स्थिर हेबे ये क्षणे ॥ १५.७४ ॥ शिष्य गुरुपदे पडि करिबे मिनति । मागिबे भावेर सिद्धि करिया काकुति ॥ १५.७५ ॥ कृपा करि गुरुदेव करिबे आदेश । शिष्य सेइ भावे तबे करिबे प्रवेश ॥ १५.७६ ॥ दृढ वरण श्रीगुरुचरणे पडि बलिबे तखन । तवादिष्ट भाव आमि करिमु वरण ॥ १५.७७ ॥ ए भाव कखन आमि ना छाडिब आर । जीवने मरणे एइ सङ्गी ये आमार ॥ १५.७८ ॥ भजने प्रतिबन्धक विचार निज सिद्ध एकादश भावे व्रती हये । स्मरिबे सुदृढचित्ते निजभावचये ॥ १५.७९ ॥ स्मरणे विचार एक आछे त सुन्दर । आपनेर योग्यस्मृति कर निरन्तर ॥ १५.८० ॥ आपनेर अयोग्य स्मरण यदि हय । बहु युग साधिले ओ सिद्धि कभु नय ॥ १५.८१ ॥ आपनदशा आपनसाधने स्मृति यबे हये व्रती । अचिरे आपनदशा हय शुद्ध अति ॥ १५.८२ ॥ निज शुद्धभावेर ये निरन्तर स्मृति । ताहे दूर हय शीघ्र जडबद्धमति ॥ १५.८३ ॥ बद्धजीव ये क्रमे भाव प्राप्त हन जडबद्धजीव भुलि निज सिद्धसत्त्व । जड अभिमाने हय जडदेहे मत्त ॥ १५.८४ ॥ तबे यदि कृष्णलीला करिया श्रवण । लोभ हय पाइबारे निज सिद्धधन ॥ १५.८५ ॥ तबे भावतत्त्वस्मृति अनुक्षण करे । भाव यत बाडे तार भ्रान्ति तत हरे ॥ १५.८६ ॥ स्मरण दशा । ताहाते वैध ओ रागानुगता भावेर भेद । शेषटीरे प्रयोजन स्मरण द्विविध वैध रागानुग आर । रागानुगा स्मृति युक्तिशास्त्र हैते पार ॥ १५.८७ ॥ माधुर्य आकृष्ट हये करये स्मरण । अचिराते प्राप्त हय दशा भावापन ॥ १५.८८ ॥ वैधभक्तेर उन्नतिक्रमे वैधभक्त स्मृतिकाले सदा विचारय । अनुकूल युक्तिशास्त्र यखन ये हय ॥ १५.८९ ॥ भावापने हय भाव आविर्भावकाल । शास्त्रयुक्ति छाडे तबे जानिया जञ्जाल ॥ १५.९० ॥ श्रद्धा निष्ठा रुच्य्आसक्तिक्रमे येइ भाव । आपन समये ताहा हय आविर्भाव ॥ १५.९१ ॥ आपनदशाय रागानुग ओ वैधभक्तेर भेद नाइ भावापने रागानुगा वैधभक्त भेद । नाहि थाके कोन मते गाय स्मृति वेद ॥ १५.९२ ॥ पञ्चविध स्मरण स्मरण धारणा ध्यान अनुस्मृति आर । समाधि ए पञ्चविध स्मरण प्रकार ॥ १५.९३ ॥ भावापन दशार उदय काल समाधि स्वरूप स्मृति ये समये हय । भावापन दशा आसि हेबे उदय ॥ १५.९४ ॥ से समये ये अवस्था हय सेइ काले निज सिद्धदेह अभिमान । पराजिया जडदेह हबे अधिष्ठान ॥ १५.९५ ॥ तखन स्वरूपे व्रजवास क्षणे क्षण । भावापने स्वस्वरूपे हेरि व्रजवन ॥ १५.९६ ॥ आपने स्वरूपसिद्धि, वस्तुसिद्धि लिङ्गभङ्गे आपने स्वरूपसिद्धि लभे भाग्यवान् । लिङ्गभङ्गे वस्तुसिद्धि सम्पत्ति विधान ॥ १५.९७ ॥ साधनसिद्धिर फल हेया साधनसिद्धा नित्यसिद्धा सह । समता लभिया कृष्णसेवे अहरहः ॥ १५.९८ ॥ नामद्वारा सिद्धिलाभ सेवाभङ्ग आर तार कभु नाहि हय । परम उज्ज्वल रसे सतत मातय ॥ १५.९९ ॥ नाम से परम धन नामेर आश्रये । एत सिद्धि पाय जीव शुद्धसत्त्व हये ॥ १५.१०० ॥ संक्षेपे क्रम परिचय अतएव भक्त्य्उन्मुखजन साधुसङ्गे । निर्जने करिबे नाम क्रमेर अभङ्गे ॥ १५.१०१ ॥ क्रमे क्रमे अल्पकाले सर्वसिद्धि हय । कुसङ्ग वर्जिया साधुसङ्गे फलोदय ॥ १५.१०२ ॥ (१) साधुसङ्ग, (२) सुनिर्जन, (३) दृढभाव साधुसङ्ग सुनिर्जन निज दृढभाव । एइ तिन बले लभि महिमा स्वभाव ॥ १५.१०३ ॥ आमि हीन क्षुद्रमति विषये विभोर । साधुसङ्ग विवर्जित सदा आत्मचोर ॥ १५.१०४ ॥ अहैतुकी कृपा कभु करिया विस्तार । भक्तिरसे गति देह प्रार्थना आमार ॥ १५.१०५ ॥ एत बलि हरिदास प्रेमे अचेतन । श्रीगौराङ्ग पदे करे देह समर्पण ॥ १५.१०६ ॥ प्रेमे गद्गद प्रभु ताङ्हारे उठाय । आलिङ्गन दिया चित्तकथा बले ताय ॥ १५.१०७ ॥ प्रभुर आज्ञा शुन हरिदास एइ लीला संगोपने । विश्व अन्धकार करिबेक दुष्ट जने ॥ १५.१०८ ॥ सेइ काले तोमार ए चरमोपदेश । अवशिष्ट साधुजने बुझिबे विशेष ॥ १५.१०९ ॥ एइ तत्त्व नामाश्रये निष्किञ्चन जन । निर्जने बसिया कृष्ण करिबे भजन ॥ १५.११० ॥ निज निज भाग्यबले जीव पाय भक्ति । भक्ति लभिबारे सकलेर नाहि शक्ति ॥ १५.१११ ॥ सुकृति जनेर भक्ति दृढ करिबारे । आइलाम युगधर्म नामेर प्रचारे ॥ १५.११२ ॥ हरिदास ठाकुर नामप्रचारेर सहाय तुमि त सहाय मोर ए कार्य साधने । तव मुखे नामतत्त्व शुनि ए कारणे ॥ १५.११३ ॥ हरिनाम चिन्तामणि अखिल अमृत खनि कृष्णकृपा बले ये पाइल । कृतार्थ से महाशय सदा पूर्णानन्दमय रागभावे श्रीकृष्ण भजिल ॥ १५.११४ ॥ ताङ्हार चरण धरि सदा काकुति करि काङ्दे एइ अकिञ्चन छार । ए अमृतरसलेश पियाइया अवशेष कर सार आनन्द विस्तार ॥ १५.११५ ॥ इति श्रीहरिनामचिन्तामणौ भजनप्रणालीप्रदर्शनं नाम पञ्चदशः परिच्छेदः